त्रिपुरा का चुनाव परिणाम
उत्तर पूर्वी भारत के पर्वतीय राज्य त्रिपुरा मैं भाजपा को बहुमत मिलने से चुनावी पंडित सकते में हैं। जो भाजपा के बहुत करीबी थे वह भी समझते थे कि बढ़त सीपीएम को ही मिलेगी लेकिन मामूली अंतर से। परंतु भाजपा की विजय ने सारे समीकरण बदल दिए। त्रिपुरा में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठित विकास , धन बल और केंद्रीय संसाधनों के नहीं पूरे होने वाले बड़े बड़े वादे ने यह विजय दिलाई है। इसके अलावा बांग्लादेश करीब होने के कारण इस शांतिपूर्ण राज्य की राजनीति और जनसांख्यिकी की परस्पर क्रिया भी इसके के लिए जिम्मेदार हैं। यह राज्य कई कारणों से शांतिपूर्ण है।विगत 4 दशकों से वहां सीपीएम का शासन था और लोगों का मानना है इसका श्रेय मुख्यमंत्री माणिक सरकार के शांत और गंभीर व्यक्तित्व को जाता है। माणिक सरकार की सादगी का क्या कहिए। वह अपनी सारी तनख्वाह पार्टी को दे देते थे और पार्टी से मिले 2,000 से कुछ ज्यादा रुपए पर महीना भर गुजारा करते थे। उनके पास महज 2000 रुपयों का बैंक बैलेंस था। शहर अगरतला के बाहर बहन के साथ थोड़ी जमीन थी। न कार थी ,ना मोबाइल। वे सच्चे कम्युनिस्ट थे और त्रिपुरा को उन पर गर्व था। माणिक सरकार ने सीमा पार आतंकवाद और अन्य समस्याओं के बावजूद राज्य में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखें। वह पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम को खत्म करने का साहस किया। बंगालियों और त्रिपुरा के स्थानीय जनजातियों मैं सौहार्द्र कायम करने की कोशिश की इससे अलगाववाद की ताकतों को प्रोत्साहन मिलना बंद हो गया। त्रिपुरा में साक्षरता की दर 90% है और कुपोषण भी काफी घट गया है। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिला है। कानून और व्यवस्था की स्थिति सराहनीय है तथा जनजातियों को उनके पारंपरिक अधिकार प्राप्त हुए हैं ।
इन सदगुणों से अलग कई कारण थे जो वहां व्यवस्था विरोधी जनमत तैयार करने और हिंदुत्व ताकतों को उभरने में मददगार हुए। माणिक सरकार हार गए। इस संदर्भ में हकीकत का विश्लेषण जरूरी है। चार दशक से बिल्कुल इमानदारी से राजकाज चलाना भर आधुनिक मतदाताओं के लिए आवश्यक नहीं है। विशेषकर उन मतदाताओं के लिए जो पढ़े लिखे हैं रोजगार के इच्छुक हैं और वैश्विक उदारवाद के समर्थक हैं। इन्हें मतलब नहीं है दर्शन क्या है इतिहास क्या है और समाज विज्ञान क्या है। वैसे भी भारत में " डाउनवार्ड फिल्टर थ्योरी " कामयाब नहीं है। फिर भी यह भारत में आकर्षण का कारण है। ठीक उसी तरह जिस तरह मुकद्दर ऊपर वाले के हाथ में है। माणिक सरकार की हार का मुख्य कारण व्यवस्था विरोधी जनमत था। वहां कांग्रेस भी जोर आजमा रही थी लेकिन उसमें दूरदर्शिता का अभाव था। कांग्रेस ने दीवारों पर लिखी इबारत नहीं पढ़ी। कांग्रेस के त्रिपुरा के प्रभारी सी पी जोशी थे और वह बस एक बार त्रिपुरा आए। दूसरी तरफ राहुल गांधी ने भी बहुत कम दिलचस्पी दिखाई। नतीजा यह हुआ कि पार्टी के अधिकांश निर्वाचित सदस्य भाजपा में चले गए। अब कुछ ऐसा नजारा हुआ कि मतदाताओं ने कांग्रेसियों को ही वोट दिए लेकिन वह भाजपा के झंडे तले थे। कुछ समय से त्रिपुरा में आदिवासियों और बंगालियों में तनाव चल रहा था। माणिक सरकार ने हालांकि बंगाली और आदिवासी समुदाय में बीच- बचाव और सौहार्द्र पैदा करने की कोशिश की थी पर सफल नहीं हो पाए थे। यही नहीं एक स्थानीय अलगाववादी पार्टी है "इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा" (आईपीएफटी}, जिसे पिछले चुनाव में कोई मत नहीं मिला था। वह भी इस बार 8 सीटें जीत ली है। यह भाजपा के साथ है। इसमें बंगाली वोटर ज्यादा है। माकपा को यहां 45% वोट मिले हैं जबकि विजयी होने के बावजूद भाजपा को 42% और आई पी टी एफ को 8%। दोनों दल मिल गए हैं। यानी, भाजपा के पास 50% वोट हो गए। लेकिन यह विश्वसनीय नहीं है। क्योंकि इसमें कभी भी फूट पड़ सकती है। त्रिपुरा में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है बंगाल की तरह वहां के बंगाली समुदाय में कम्युनिज्म को जनसमर्थन। अब अतीत में कांग्रेस बिना हिंदुत्व ताकतों के इस समुदाय के साथ कैसे समायोजित करती थी यह अभी भी एक रहस्य है।
बंगाल में ममता बनर्जी ने बंगाली विरासत के सभी प्रतीकों को बदलकर वामपंथियों को किनारे कर दिया । बांग्ला सभ्यता और संस्कृति के जितने भी प्रतीक थे चाहे वह रविंद्र नाथ टैगोर हो या रामकृष्ण परमहंस या अन्य कोई सबके साथ ममता जी ने खुद को जोड़कर एक नया बिम्ब गढ़ दिया। ऐसा लगने लगा कि वह इन्हें पाकर या इनके प्रदर्शन से खुद को गर्वित महसूस करती हैं। इससे बंगाली समुदाय उनकी ओर आकर्षित हुआ। यही कारण है कि भाजपा अपनी हर कोशिश के बावजूद बंगाल के कई भागों में अपना झंडा नहीं फहरा सकी है।त्रिपुरा के चुनाव से यह आशंका है कि बंगाली समुदाय सांप्रदायिक ध्रुवों पर जमा हो सकता है। चाहे जो भी हो इसकी कीमत माणिक सरकार को को ही चुकानी पड़ी है।
सीताराम येचुरी और प्रकाश करात की रस्साकशी पूरे जोरों पर है। इससे भारत में वामपंथ उसी तरह अव्यवहारिक होता जा रहा है जैसे मार्क्सवाद का दर्शन। इतिहास खुद को दोहराता है। पहले झूठ के रूप में, फिर विपदा के रूप में और फिर संकट के रूप में। बंगाल में माकपा खत्म हो गई त्रिपुरा में हार गई अब लगता है इसका नाम किताबों में ही रह जाएगा।
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