एग्जाम वारियर्स या चुनाव वारियर्स
जब बोर्ड परीक्षाएं माथे पर हैं तो एक किताब ने सबको आकर्षित किया है, विशेषकर तब और जब यह किताब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद लिखी है। इस किताब का नाम है " एग्जाम वारियर्स " । इसका नाम कुछ ऐसा है और उसे जारी करने का समय भी कुछ ऐसा है ,जब सब लोगों को - विशेषकर छात्रों को - यह उम्मीद थी की परीक्षाओं को काबू में करने या उनसे निपटने की कुछ नई तकनीक इस किताब के पन्नों में होगी। पर दुख की बात है कि इस किताब के पन्नों में यह बताया गया है कि परीक्षाओं के दवाब से कैसे मुक्ति पाएं। इस किताब के आरंभ में वादा किया गया है कि परीक्षाओं के दवाब से निपटने में मदद करेगी, लेकिन पूरी पुस्तक में जो लिखा गया है वह है एक सतही और घटिया सुझाव है। यह सुझाव अवास्तविक भी है। मान भी लेते हैं की परीक्षाएं तनावपूर्ण होती है तब भी एक छात्र इसे उत्सव की तरह कैसे मना सकता। यह तो कुछ वैसा ही है जैसे सेव की तुलना संतरे से की जाए। या ,ऐसा जैसे किसी प्रसूता महिला से कहा जाए कि वह प्रसव के क्षणों में हंसे। परीक्षाएं और उत्सव एक साथ, बड़ी अजीब बात है प्रधानमंत्री जी।
परीक्षाएं सदा से तनावपूर्ण हैं और रहेंगी। हम में से हर आदमी को अपना छात्र जीवन याद होगा। जब हम लोग या आप लोग रात - रात भर जाग कर और बेचैन होकर परीक्षाओं की तैयारियां करते थे। कई वर्ष गुजर गए लेकिन हालात अभी तक नहीं बदले हैं। अलबत्ता मोबाइल फोन के माध्यम से वाट्सएप इत्यादि ने थोड़ा कंफ्यूजन जरूर पैदा कर दिया है। लेकिन तब भी छात्रों का जीवन और जटिल तथा तनावपूर्ण हो गया है। ऐसे में प्रधानमंत्री जी की पुस्तक " एग्जाम वारियर्स " यानी परीक्षा का योद्धा परीक्षा के लिए चिंताजनक बन गया है।
परीक्षाओं में कई तरह के दबाव काम करते हैं। पहला फेल होने की चिंता ,दूसरा कि फेल होने पर या अच्छा नंबर नहीं आने पर पड़ोसी क्या कहेंगे , तीसरा अच्छे कॉलेज में नाम नहीं लिखा पाएगा इत्यादि। ऐसे खौफनाक माहौल में प्रधानमंत्री जी की किताब सुझाव देती है की परीक्षा उत्सव की तरह मनाएं ,मौज मस्ती करें। यह बात समझ में नहीं आती है। छात्र इस किताब को किस तरह देखेंगे पर इसे पढ़ने के बाद एक बात तो जरूर मन में आती है कि इस देश में मुफ्त सुझाव देना सबसे आसान काम है।
यह बात विश्वसनीय नहीं है और विश्वास का कोई अर्थ भी नहीं है कि यह किताब प्रधानमंत्री जी ने खुद लिखी है, या किसी ने उनके लिए लिखी है। लेकिन यह तो तय है यह पूरी किताब बिल्कुल निरर्थक है। इसका कोई मूल्य नहीं है। इसमें जो निर्देश दिए गए हैं या सुझाव दिए गए हैं उनसे छात्र पहले से अवगत हैं। लेकिन इसमें परेशान करने वाला मसायल यह है की यह पुस्तक एक ऐसे आदमी द्वारा लिखी गई है जो सत्ता के शीर्ष पर है और छात्रों को लक्ष्य करके लिखी गई है। जबकि छात्र अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं ना कि बातफरोशी।
इस पुस्तक को जारी किए जाने के लगभग 2 हफ्ते पहले प्रधानमंत्री जी ने " परीक्षा पर चर्चा " नाम से एक कार्यक्रम भी पेश किया था। यह कार्यक्रम छात्रों को संबोधित था। इसमें बोर्ड की परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों के तनाव पर चर्चा की गई थी। इस कार्यक्रम में उन्होंने आई क्यू और ई क्यू के बीच संतुलन बनाने, योग के फायदे और परीक्षाओं के समय शांत रहने का सुझाव दिया था। खास तौर पर उन्होंने यह समझाया था की परीक्षाओं के तनाव छात्रों को कितनी हानि पहुंचाते हैं। उनकी बात सुनकर यह सोचने पर मजबूर हुआ जा सकता है कि क्या हमारे छात्र , हमारे बच्चे, हमारे जिगर के टुकड़े पहली बार बोर्ड परीक्षा में बैठने जा रहे हैं? क्या यह पहली बार है जब छात्र तनावग्रस्त हैं? या ऐसा पहली बार हो रहा है कि छात्र परीक्षाओं के जाल में फंस रहे हैं अथवा यह जीवन की पहली बाधा है?
वही पुराना पाठ्यक्रम, पढ़ाने का वही पुराना तरीका, कॉपी जांचने का वही पुरानी पद्धति, प्रतियोगिता, अच्छे कॉलेजों की कमी और हर साल बढ़ते कॉलेज के " कट ऑफ " ,इतनी कठिनाइयों के बाद एक छात्र कैसे महसूस कर सकता है की परीक्षा में उत्सव मनाया जाए या परीक्षा तनावपूर्ण ना हो।
प्रधानमंत्री सहित हमारे नीति निर्माता सबसे पहले यह सोचें कि किताब लिखने और तनाव में नहीं रहने का सुझाव देने से समस्या का समाधान नहीं होगा। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में " कट ऑफ " की सीमा नियंत्रित करनी होगी, सिलेबस दुबारा तैयार करने होंगे और संपूर्ण शिक्षा प्रणाली की समीक्षा करनी होगी। केवल इन्हीं उपायों से परीक्षाओं में तनाव खत्म होंगे। यह सब जानते हैं कि सिस्टम रातों-रात नहीं बदला जा सकता। अब ऐसे में यह सोचकर हैरत होती है की परीक्षा के तनाव इतने महत्वपूर्ण विषय हो गए हैं कि यह हमारे देश के शासन का प्रमुख समय निकाल कर इस पर किताब लिखे और फिर समय निकालकर छात्रों को या नौजवानों को संबोधित करे। इससे ऐसा लगता है की परीक्षाएं राष्ट्रीय मसला हैं या फिर उनका कोई निहित अर्थ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह 2019 के चुनाव की तैयारी चल रही है। क्योंकि बोर्ड की परीक्षा में बैठने वाले छात्र ही, जिनकी संख्या लाखों में है, अगले साल तक मतदाताओं का नया समूह बनकर उभरेंगे।
झूठ की होती है बोहतात सियासत में
सच्चाई खाती है मात सियासत में
और ही होते हैं हालात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में
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