भारी जलसंकट की आशंका
शहरी विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश के 32 बड़े में से 22 जलसंकट से जूझ रहे हैं। इनमें सबसे खराब हालत है कानपुर, आसनसोल, धनबाद, हैदराबाद, मेरठ, फरीदाबाद , विशाखापत्तनम और मदुरैई की। यहां मांग से 30 प्रतिशत कम जलापूर्ति होती है। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में 24 प्रतिशत और मुम्बई में 17 प्रतिशत कम जलापूर्ति होती है। जबकि कोलकाता , इलाहाबाद, वदोदरा, राजकोट और नासिक अभी अपनी जरूरतें पूरी कर ले रहे हैं।उधर नागपुर और लुधियाना में जरूरत से ज्यादा पानी की आपूर्ति होती है। उधर राजस्थान की हालत रोजाना बिगड़ती जा रही है। पूरा प्रांत भूमि जल पर निर्भर है और भूमिजल का तल दिनोंदिन नीचे आ रहा है। राजस्थान में कुल उपलब्ध जल का केवल 10 प्रतिशत ही सुरक्षित है बाकी 90 प्रतिशत खारा पानी है ओर उसमें लगभग 55 प्रतिशत जल में फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज्यादा है।
1950 के दशक में देश के सभी क्षेत्रों में जलापूर्ति दुनिया के किसी भी शहर से बेहतरीन थी। 1970 से यह स्थिति बिगड़ने लगी। आज हालात बहुत खराब हो चुके हैं। इसका कारण है जलवितरण का खराब प्रबंधन और आपूर्ति वाली पाइपों में भारी लीकेज। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली का आधा पानी तो ऐसे ही बेकार हो जाता है। दूसरे शहरों में भी यही हसालत है। दिल्ली जल के मामले पर कई राज्यों से उलझ रही है जबकि चेन्नई में खारे पानी को मीठा बनाने के विशाल प्लांट लगाने की तैयारी चल रही है और बंगलोर प्रशासन तो एक मिनी डैम बनाने का सपना देख रहा है।इन सबके बावजूद इन नगरों में औसतन चार घंटे रोज पानी मिलता है। नतीजा यह है कि नगरवासी ज्यादा से ज्यादा पानी जमा करना चाहते हैं। कई घरों में छतों पर टंकियां लग गयीं तो कई घरों में बल्टियों भर कर पानी जमा किया जाता है। लेकिन विकास की बड़ी- बड़ी योजनाएं बनाने वाली देश की सरकार को इस ओर से कोई चिंता ही नहीं है। जिस देश में मानसून लगभग हर साल दगा देता है और देश का अधिकांश भाग सूखा से पीड़ित है वैसे देश में पीने का पानी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। यह मुल्क के सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक स्वास्थ्य तय करता है।
2050 तक भारत की आबादी लगभग 170 अरब हो जाने का अनुमान है। यही नहीं इस बीच मध्यवर्गीय सम्पन्नता भी बढ़ेगी। इसके कारण प्रोटीन युक्त खाद्य पदाथोंं की मांग बढ़ेगी और उसे उपजाने में औसत से ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है। एक तरफ पीने के पानी का संकट बढ़ रहा है और दूसरी तरफ खेती के लिये भी पानी की बढ़ती जरूरत एक भयानक संकट का संकेत दे रही है। यही नहीं वर्तमान स्थिति ने गंभीर आर्थिक, सामाजिक,राजनीतिक और पर्यावरणीय संकट पैदा कर दिया है। भारत का भूमि जल का घटता स्तर कोई नवीन चुनौती नहीं है। 1960 में जब हरित क्रांति का दौर शुरू हुआ तब से यह समस्या बढ़ने लगी। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान भारत में 230से 250 घन किलोमीटर भूमि जल का उपयोग हर सााल होता है। यह दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाले भूमि जल का एक चौथाई है। देश में 60 प्रतिशत सिंचाई और 80 प्रतिशत घरेलू उपयोग के लिये भूमि जल का प्रयोग होता है। किसान सिंचाई के लिये भूमि जल पर ज्यादा भरोसा करते हैं क्योंकि इस पर इनका नियंत्रण रहता है। कब और कितना पानी देना है यह उनके हाथ में होता है। भूमि जल के बढ़ते उपयोग का कारण सरकार की लोकलुभावन नीतियां भी हैं। देश के ज्यादातार क्षेत्रों में खेती के लिये बिल्कुल मुफ्त या मामूली दर पर बिजली मिलती है। इससे खेती में इसका लगातार बढ़ रहा है।
भारतीय जल संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2004 में लगभग 29 प्रतिशत भूमिजल खंड की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे हैं। 2014 की भूमिजल बोर्ड की रपट के अनुसार चरम जल शोषण वाले जिलों की संख्या देश में 1995 में 3 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो गयी। जल के बड0 रहे संकट के लिये भूमि जल की तेज निकासी ही जिम्मेदार नहीं है। इसके साथ ही जल प्रबंधन की राजनीतिक अवहेलना भी इसके लिये जिम्मेदार है। जमीन के ऊपर जो पानी है उसकी हालत बहुत खराब है और जमीन के भीतर का पानी भी सुरक्षित नहीं है। जमीन के भीतर के पानी के नियमन के लिये केंद्र सरकार के चार विभाग हैं लेकिन दुखद यह है कि किसी पास ताजा हालात के आंकड़े नहीं हैं। अगर देश में जल प्रबंधन का विकास नहीं हुआ तो पानी को लेकर आम जनता आंदोलन की राह पकड़ सकती है और सरकार संकट में आ सकती है। दुनिया के सबसे ज्यादा जनसंकुल एक देश लिये यह बहुत खतरनाक स्थिति होगी।
0 comments:
Post a Comment