सांस्कृतिक और सामाजिक विजय नहीं है
त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पर भारतीय जनता पार्टी की विजय बेशक ऐतिहासिक है और अद्वितीय है। भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि एक दक्षिणपंथी पार्टी ने एक वामपंथी पार्टी को सीधे चुनावी मुकाबले में पराजित कर दिया। यह अचंभित कर देने वाली राजनीतिक विजय है। लेकिन, त्रिपुरा विजय का समष्टिगत बिंबों के संदर्भ में विश्लेषण किया जाए तो यह होगा भारत के एक राज्य के सांस्कृतिक और सामाजिक लैंडस्केप पर दक्षिणपंथी ताकतों ने वामपंथी शक्तियों को पराजित कर दिया। यह कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की कमान में भारतीय दक्षिणपंथी ताकतों ने सांस्कृतिक विजय हासिल कर ली। दक्षिणपंथी ताकतों ने यह बहुत बड़ी विजय हासिल की है। यह विजय बहुत महत्वपूर्ण भी मानी जा सकती है लेकिन इस विजय को संपूर्ण भारत में सांस्कृतिक और सामाजिक जंग में विजय नहीं माना जा सकता जैसा कि भाजपा फैला रही है। भारत एक बहुत बड़ा देश है और इसका सांस्कृतिक इतिहास बहुत पुराना है और विशाल भी है। इसका सामाजिक स्वरूप बहुजातीय और बहुभाषी है। इसी लिये देश में विविधता में एकता की बात की जाती है।
लेनिन की मूर्ति को तोड़े जाने के खिलाफ देशभर में जो गुस्सा दिखा उससे यह जाहिर होता है देश ने एक तरह से चेतावनी दी है। भाजपा ने इस चेतावनी को बखूबी समझा है और यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह सहित पार्टी के हर बड़े नेता ने इस घटना की निंदा करनी शुरू कर दी। लेकिन इसी में किसी की जुबान फिसल गई और संघ के एक बड़े नेता ने कह दिया कि भाजपा ने सिद्धांत की जंग जीती है इसलिए मूर्ति तोड़ी जा रही है क्योंकि यह वामपंथ का प्रतीक है। इस बयान के साथ ही कई राज्यों मे दक्षिणपंथी नेताओं की बोलती बंद हो गई। यह किसी को याद नहीं है कि मोदी जी ने घटना पर कब बयान जारी किया था। गौर करें, देश में एक संप्रदाय के लोगों की हत्या, गौ हत्या के नाम पर हिंसा, दलितों पर अत्याचार इत्यादि की घटनाओं पर सब नेताओं ने चुप्पी साध रखी है।
त्रिपुरा में विजय का अगर समाज वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए क्या पता चलेगा कि यह विजय ना संघ के सिद्धांतों की है ना ही भाजपा के चुनावी मशीन की बल्कि यह विजय जाति , समुदाय और संप्रदाय के समीकरण की है। जिसे भाजपा ने उत्साह में सोशल इंजीनियरिंग, बूथ स्तर तक प्रबंधन तथा सबसे ज्यादा व्यवस्था विरोधी रुख बता रही है । यही नहीं कांग्रेस के संबंध में पूर्ण रूप से विकल्प हीनता भी इसका एक कारण है। कांग्रेस का वोट का हिस्सा 2013 के 36.5 से घटकर 2018 में 1.8 हो गया। त्रिपुरा में जीत हासिल करने वाली भाजपा सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप में शून्य है। भाजपा ने प्रतिद्वंदियों को तोड़ने की और अपने में मिलाने की रणनीति अपनाई थी। उदाहरणस्वरूप, भाजपा ने त्रिपुरा में जिन 14 प्रत्याशियों को खड़ा किया था वह सब के सब कांग्रेस के थे और विधानसभा के सदस्य थे। चुनाव के दौरान पांच पूर्व कांग्रेसी विधायक भी तृणमूल कांग्रेस में चले गए थे।
पश्चिम बंगाल में भी तो पिछले चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ था। वोट का समस्त आधार ही कांग्रेस से ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में आ गया था। यह एकदम माकपा के विकल्प के रूप में उभर आया। वैसे ही त्रिपुरा में भी विजयी भाजपा पुरानी कांग्रेस का ही परिवर्तित स्वरुप है। इसलिए भाजपा ने सांस्कृतिक और सामाजिक जंग नहीं जीती है , वहां उसका कांग्रेसीकरण हो गया है। भाजपा कांग्रेस की संस्कृति का ही स्वरुप है और विडम्बना है कि मोदी जी कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाहते हैं।
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