अज्ञानता स्वीकार बड़प्पन है
अज्ञानता को स्वीकार करना सबसे बड़ा ज्ञान है। सभी दर्शन की पूर्वशर्त है यह।अब देखिए, पिछले दिनों राहुल गांधी से किसी बच्चे ने पूछ लिया एन सी सी के “सी” सर्टिफिकेट को पूरा करने के बाद वह कौन सी सुविधाएं देंगे और राहुल गांधी ने यहीं पर एक राजनीतिक अपराध कर डाला। उन्होंने कहा , नहीं जानते। राहुल ने स्पष्ट तौर पर कहा कि उन्हें मालूम नहीं है कि एन सी सी में क्या ट्रेनिंग दी जाती है ? इसलिए वह इस में वे कुछ नहीं कह सकते हैं। इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष ने बताया कि वह “ नौजवान भारतीयों को रिटायर होने के पहले क्या क्या देना चाहते हैं। “ जहां तक NCC का सवाल है उसके बारे में वे बहुत कुछ नहीं जानते । खास तौर पर यह नहीं जानते कि उन्हें क्या –क्या ट्रेनिंग दी जाती है।
अब लीजिए हो गया बवाल। कर्नाटक चुनाव सिर पर है और कांग्रेस अध्यक्ष का यह कथन राष्ट्रीय बहस का मसला बन गया। राहुल गांधी ने कहा कि वह इसकी विस्तृत तौर पर जानकारी नहीं रखते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे बिना सोचे समझे हवा में उड़ा दिया। सोशल मीडिया नेटवर्क में बात फैली कि राहुल गांधी एन सी सी के बारे में कुछ नहीं जानते। यह आजाद भारत में एक विशिष्ट संस्थान का अपमान है।
सोशल मीडिया के वाल को पढ़ने के बाद ऐसा लगने लगा कि यह मसला राहुल गांधी बनाम एन सी सी का हो गया है। लेकिन बात यह नहीं है। पहले तो राहुल को इस मसले का जरा चालाकी से उत्तर देना चाहिए था , जैसा आमतौर पर राजनीतिज्ञ करते हैं। लेकिन राहुल की इमानदारी कहिए कि वे अपनी अभिव्यक्ति में धूर्तता नहीं ला सके। उन्हें एन सी सी के समर्थन में बड़ी-बड़ी बातें करनी चाहिए थीं और तब कहना चाहिए था बेशक जिस कैडेट ने इसे पास किया है उसे हर संभव सुविधा दी जाएगी। लेकिन क्या इस तरह का उत्तर राजनीतिक जुमलेबाजी नहीं होगा 15 -15 लाख रूपए जमा कराने वाले भाषण कई तरह । यह प्रतिबद्धता नहीं है धोखा है। यही नहीं इस तरह के उत्तर एन सी सी के आतंरिक मूल्यों के विपरीत होंगे। अपने कॉलेज के दिनों में हमारे बहुत से पाठकों ने एनसीसी ने भाग लिया होगा और उन्हें मालूम होगा एन सी सी के आंतरिक मूल्य क्या हैं , तथा चालाकी भरे उत्तर उसके उन मूल्यों से विपरीत हैं। एन सी सी का उद्देश्य है एकता और अनुशासन। उसका वह राष्ट्रगीत “ मंदिर गुरुद्वारा भी यहां है और मस्जिद भी हैं यहां.....”
बहुत कम लोग जानते होंगे की इस गीत को किसने लिखा। राहुल गांधी का यह साफ कहना एन सी सी के आंतरिक मूल्य के अनुकूल है। खास तौर पर उसके आंतरिक मूल्य की सूची के अंतिम दो पैरा देखें।
पहला- ईमानदारी, सच्चाई, आत्मबलिदान, अभ्यास और कठोर परिश्रम के मूल्य को समझना और उसका सम्मान करना।
दूसरा- ज्ञान, विद्वता और वैचारिकता का सम्मान करना।
एन सी सी का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र “ सी” सर्टिफिकेट है। गूगल में सर्च करेंगे तो दिखेगा कि “ सी” सर्टीफिकेट हासिल करने के बाद सेना में भर्ती होने और सरकारी नौकरियों में सुविधा मिलेगी लेकिन इस पर विचार करना जरूरी है । सोचने वाली बात है इस सर्टिफिकेट को पाने के बाद अगर समुचित अकादमिक योग्यता नहीं रही तो क्या उस उम्मीदवार को केवल इस सर्टिफिकेट के बल पर सुविधाएं मिल सकती हैं ?
ऐसी बहस के दौरान अक्सर राजनीतिक नीति संबंधी उत्तर देते हैं। यह सबसे सुरक्षित तरीका है और दूसरा तरीका है अपनी अज्ञानता प्रकट करने का। जो राजनीतिक तौर पर हानिकारक होता है। बड़बोलापन कुछ देर के लिए कारगर होता हुआ सा लगता है लेकिन हमेशा कारगर नहीं रहता। आज की विडंबना यह है कि हमारे राजनीतिज्ञ यह दिखाते हैं कि वह सब कुछ जानते हैं जो कुछ नहीं जानते उसके बारे में इतना शोर मचा देते हैं कि बात ही गुम हो जाती है। यह गड़बड़ी तब से शुरू हुई जब से टी वी पर बहस होने लगी और बातों को तोड़ मरोड़ कर उनके विभिन्न अर्थ निकाले जाने लगे। यहां से यह तौर तरीके सोशल मीडिया में आए और सीमित कैरेक्टर के साथ गरमा गरम समाचारों के प्रवाह में विचार बन कर जनता के सामने आने लगे। इसके बाद गड़बड़ी यह हुई कि हम अपने अपरिपक्व को विचारों को सही बता कर उनकी तरफदारी शुरू करने लगे। उसके पक्ष में तरह-तरह के तर्क देने लगे। यह सोचने की कोई ज़रुरत नहीं समझते हैं कि तर्क का भी एक शिष्टाचार होता है।
सबसे खराब तो यह हुआ की हम राजनीति और नीति दोनों के जटिल विचारों को भूल छिछलेपन सेव्यक्तित्व को जोड़ने लगे। आज शायद ही किसी सोशल मीडिया का कोई कोना ऐसा मिले जिसमें समुचित विरोध और जायज समर्थन दोनों का उचित तालमेल हो। जो लोग मोदी जी की आरती गाते हैं वे नोटबंदी का विरोध नहीं कर सकते या दलितों पर हमले का प्रतिवाद नहीं कर सकते । इस जमात में ऐसा आदमी पाना दुष्कर होगा जो जीएसटी पर कांग्रेस के विचारों का समर्थक हो या यह स्वीकार करे कि जाति और संप्रदाय से जुड़े हमले गलत हैं । नेता यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि वह सब कुछ जानते हैं और ऐसा ही फैला भी देते हैं । कुछ भी नहीं जानना स्वीकार करने के पीछे एक मनोवैज्ञानिक भय है होता है कि कहीं गलती तो नहीं हो रही है। इसी वजह से सब लोग अपने को सर्वज्ञात बताते हैं। लेकिन इस अदूरदर्शितापूर्ण गलत विचार या कहें गलतफहमी से बेहतर है कि धीरे-धीरे जानकारी प्राप्त करने की ओर बढ़ा जाए। इस राह पर पहला कदम होगा ना जानकारी को स्वीकार करना वरना आगे जाकर पूरी राजनीति झूठ और जुमलों , जबरदस्ती के थोपे हुए विचारों और कुतर्कों का केंद्र बन जाएगी ।
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