मोदी जी की डिग्री का विवाद, देश के शिक्षा संस्थानों के लिए खतरनाक
दिल्ली यूनिवर्सिटी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 1978 में यहां से स्नातक हुए थे, हालांकि गत 28 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में विश्वविद्यालय ने उस परीक्षा के रिकॉर्ड पेश करने से इंकार कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक आरटीआई के जवाब में ऐसा किया। उसके कदम ने प्रधानमंत्री के शैक्षणिक योग्यता पर एक और विवाद खड़ा कर दिया। अब प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर भारी विवाद हो गया है। बताया जाता है कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी ए और गुजरात विश्वविद्यालय से एम ए की डिग्री हासिल की है। दोनों विश्वविद्यालयों ने कुछ दिन पहले इसके पक्ष में बयान जारी किया था। लेकिन जब अभिलेख मांगे गए तो इन दोनों ने इनकार कर दिया। मोदी जी की जो डिग्री दिखायी है उसमें भारी भी गड़बड़ियां दिख रहीं हैं। उनका नाम ,उनकी जन्म तिथि और यहां तक की उनकी विशेषज्ञता का विषय । जो विषय उनकी सनद में लिखा है वह है पर "एंटायर पॉलिटिकल साइंस।" यह कौन सा विषय है मालूम नहीं। विश्वविद्यालयों ने इसे न्यायाधीन मामला बता कर आरटीआई का जवाब देने से इंकार कर दिया। मामला तूल पकड़ने लगा। इससे भारत के प्रधानमंत्री सहित दोनों विश्वविद्यालयों की साख पर भारी सवाल उठाता है। वैसे कानूनन भारत के प्रधानमंत्री के लिए किसी प्रकार की डिग्री की जरूरत नहीं है लेकिन शपथ के साथ झूठ बोलना गलत है। यह केवल मोदी जी का मामला नहीं है उनकी नजदीकी कही जाने वाली स्मृति ईरानी की भी डिग्री विवाद में फंसी है।
इन दोनों महत्वपूर्ण लोगों की डिग्री के विवाद में ना केवल उनकी अपनी साख पर बट्टा लग रहा है बल्कि उन दोनों विश्वविद्यालयों की साख पर भी सवालिया निशान लग गया है। सोचिए जिन विश्वविद्यालयों से हजारों छात्र हर वर्ष मेहनत और ईमानदारी से डिग्री हासिल करते हैं और उन डिग्रियों की कीमत कुछ ना हो तो कितनी बड़ी विपदा आएगी। अभी तक कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों की तरह भारत के विश्वविद्यालयों की डिग्री पर शंका नहीं की जाती है। इस वैश्विक समय में दो-तीन प्रमुख व्यक्तियों की डिग्री के ऊपर उठे सवाल उन छात्रों की डिग्रियों को संदेहास्पद बना देंगे। आश्चर्यजनक है की श्रीदेवी के मौत का मसला खोजने के लिए जिस भारतीय मीडिया ने जमीन आसमान एक कर दिया था उसने इस मामले में कोई गंभीर जांच नहीं की। जबकि पाकिस्तानी मीडिया ने कुछ साल पहले ऐसा किया था
2008 में जब राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपने देश में संसद सदस्य होने के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री को अनिवार्य कर दिया था उस समय पाकिस्तानी मीडिया ने 54 सांसदों की जाली डिग्री का पर्दाफाश कर तहलका मचा दिया था। यह मामला वहां के सुप्रीम कोर्ट तक गया था। 2012 में फिर पाकिस्तानी संविधान में संशोधन कर डिग्री की बाध्यता को समाप्त दिया गया और जिन विश्वविद्यालयों ने यह डिग्रीयां जारी की थी उन पर कार्रवाई नहीं हुई।
किसी भी देश के लिए अनिवार्य है कि उसके विश्वविद्यालयों की डिग्री वैध हो और पूरी दुनिया में स्वीकार्य हो। वरना यह देश के समस्त शिक्षा पद्धति पर सवाल खड़ा कर देगी। कीनिया में राजनीतिज्ञ अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाते हैं यह यहां का रिवाज है इस से कोई मतलब नहीं है उन्होंने यह डिग्री कहां से हासिल की है। इसलिये वहां की डिग्री का कहीं कोई महत्व नहीं है। बहुतों को याद होगा कि 2008 में ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के बहुत करीबी एक कैबिनेट मंत्री को वहां की संसद ने इसलिए बर्खास्त कर दिया था कि उनकी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की डिग्री जानी थी।
जाली डिग्रियां दुनिया भर में एक समस्या है लेकिन जिस देश में ऐसा होता है उसके शिक्षा संस्थान उन डिग्रियों के साथ क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण है। 2012 में हंगरी के राष्ट्रपति पॉल श्मिट को केवल इसलिए इस्तीफा देना पड़ा वहां के विश्वविद्यालय ने उनके डॉक्टरेट की डिग्री खारिज कर दी थी। एक साल पहले जर्मनी के रक्षा मंत्री थियोडोर को केवल इसलिए इस्तीफा देना पड़ा था कि उनकी डॉक्टरेट की थीसिस में साहित्यिक चोरी पकड़ी गई थी। मंत्रियों के साथ ही ऐसा नहीं हुआ यूरोपीय पार्लियामेंट के दो सदस्यों को भी थीसिस में साहित्यिक चोरी के लिए बर्खास्त किया गया था। 2008 में वर्जीनिया विश्वविद्यालय ने वहां के गवर्नर की बेटी की अवैध डिग्री को रद्द कर दी थी। इस कांड में वहां के कानून ने उस विश्वविद्यालय के प्रेजिडेंट को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया था। कहने का मतलब यह है ऐसे मामलों को राजनीतिक और कानूनी क्षेत्र में कैसे लिया जाता है यह महत्वपूर्ण है। इस समय दुनिया के दो वी आई पी नरेंद्र मोदी और तुर्की राष्ट्रपति तायेप एरडोगन का मामला कुछ वर्षों से विवाद में है। एरडोगन के हाईस्कूल की डिग्री पर विवाद है। अगर यह मामला प्रमाणित हो जाता है तो तुर्की के संविधान के मुताबिक एरडोगन को इस्तीफा देना पड़ेगा। लेकिन वहां के अधिनायकवादी शासन ने इस मामले में अधिक जांच करने से रोक दिया है। नरेंद्र मोदी के मामले में भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। एक तरफ तो विश्वविद्यालय और जांच एजेंसियां इस मामले में कुछ नहीं कर रही हैं संभवत: उन पर ऐसा करने के लिए दबाव है, दूसरी तरफ मीडिया की तरफ से भी कोई आवाज भी नहीं उठाई जा रही है। यह एक दुरभिसंधि की तरह लग रहा है। भारत के विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों की साख को इससे भारी आघात पहुंचेगा। पूरी की पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिए जोखिम पैदा हो जाएगा। यह एक गंभीर संकट का संकेत है।
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