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Thursday, March 15, 2018

उपचुनाव में भाजपा की पराजय का अर्थ

 उपचुनाव में भाजपा की पराजय का अर्थ

 यह जानने के लिए किसी बहुत बड़े विज्ञान की जरूरत नहीं है कि बिहार के दो और उत्तर प्रदेश के दो उपचुनावों में से 3 में भाजपा की पराजय का अर्थ क्या है। भाजपा बिहार के अररिया और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर चुनाव क्षेत्रों से बुरी तरह हार गई। यह 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए संकेत है। इन तीन सीटों ने पूर्वोत्तर भारत के चुनाव में भाजपा की विजय की चमक को धुधला कर दिया, विशेषकर त्रिपुरा की चमक  को। इसके गठबंधन ने नागालैंड और मेघालय में सरकारें  बना लीं हैं। मेघालय देश में भाजपा शासित बाइसवां राज्य हुआ।  हालांकि  मेघालय  विधानसभा की 60 सीटों में से भाजपा को सिर्फ दो ही सीट  मिली थी। उत्तर प्रदेश की जिन दो सीटों पर भाजपा हार गई है वह कोई साधारण नहीं है। क्योंकि गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ  और फूलपुर की सीट उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की है। 2014 में मोदी की सुनामी आई थी और उसके बाद से इतनी बड़ी पराजय उसे पहली बार मिली है, खास करके उत्तर प्रदेश में यह हालत आश्चर्यजनक है। क्योंकि 2014 में यहां की 80 लोकसभा  सीटों में से 71  भाजपा ने जीती थी और पिछले साल विधानसभा चुनाव में 403 विधानसभा  सीटों में से 325  सीटें उसे मिली थीं।

   उपचुनाव के परिणाम खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजे विपक्षी दलों के लिए शुभ संकेत हैं।  पिछले 4 वर्षों से विपक्षी दल एक के बाद एक चुनाव हारते जा रहे हैं। इनमें दिल्ली, बिहार और पंजाब अपवाद थे। 

   उत्तर प्रदेश के प्रयोग  ने  एक तरह से 2019 में विजय की गुफा में घुसने के लिए अलीबाबा (विपक्ष) को " खुल जा सिम सिम "  का कोड मुहैया करा दिया है।  यहां बसपा ने सपा को समर्थन दिया था। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश के इस प्रयोग ने यह बताया है कि अगर विपक्षी दल हाथ मिलाकर बिहार की भांति महागठबंधन बना लें तो मोदी के अश्वमेध के घोड़े को रोका जा सकता है। 

इस चुनाव में सबसे ज्यादा लाभ मायावती और उनकी पार्टी को हुआ है। यह पार्टी 2014 में खाता नहीं खोल पाई थी और पिछले विधानसभा चुनाव में इसे महज 17 सीटें मिलीं थीं।  पिछले 6 वर्षों में  मायावती को खुलकर मुस्कुराने का यह पहला मौका मिला है।  उन्होंने  अंतिम क्षण में समाजवादी पार्टी  को समर्थन देने की घोषणा की थी। 1993 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब दोनों  दल एक ही नाव पर सवार थे। अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा  से उनका नया तालमेल उनके लिए राज्यसभा की राह भी बना सकता है। आज गोरखपुर और फूलपुर में जो " बुआ - भतीजा " का नारा चल रहा है वह 2019 के आम चुनाव के लिए आदर्श भी बन सकता है। अंधेरी गली  के आखरी सिरे पर मायावती को हल्की रोशनी भी दिख सकती है।   इस विजय से अंततः उनके   राजनीतिक जीवन का   शीतकाल खत्म हो गया। 

अखिलेश यादव के चेहरे पर मुस्कुराहट आ सकती है।  अब वे यह बता सकते हैं कि लोकसभा में भी उनके दो और लोग  लोग पहुंचकर जहां उनकी पार्टी के सदस्यों की संख्या सात पहुंचा दी और भाजपा की घटाकर 69 कर दी। यही नहीं इस विजय से  सपा कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ेगा। यह  परिणाम बताता है  उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की तैयारी शुरू हो गयी है।

 इस चुनाव से यदि मायावती को सबसे ज्यादा लाभ मिला है तो सबसे ज्यादा घाटा योगी आदित्यनाथ को हुआ है। इसने उनकी चमकती  छवि को धुंधला कर दिया। वे इस सीट पर विगत 5 चुनावों में जीतते  आ रहे थे।  वे एक तरह से भाजपा के प्रतीक बन चुके थे और  विभिन्न राज्यों में पार्टी की  चुनाव रैलियों को संबोधित करते करते थे। संकेत तो यह  भी मिल रहे हैं कि योगी  के पर कतरने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद यह षड्यंत्र रचा था। लेकिन, ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि मोदी एक बहुत ही चालाक राजनीतिज्ञ हैं और वे अपनी राह में रोड़े नहीं रखेंगे।

  इस पराजय के बाद आदित्यनाथ ने टिप्पणी की थी  कि " यह परिणाम 2019 के चुनाव के पूर्व एक तरह से  ड्रेस रिहर्सल है। " अगर इसे मान लिया जाए तो भाजपा के लिए यह चिंता का विषय है। भाजपा को अपनी चुनाव  समर नीति में भारी बदलाव लाना होगा। हिंदुत्व के गढ़ में भाजपा की पराजय यह बताती है हिंदू कार्ड का समय खत्म हो चुका है। यह राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए भी एक का  आदर्श मौका है खुद को स्थापित करने का। उन्हें इस साल के अंत तक होने वाले कर्नाटक राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव में भी अपने को स्थापित करने का प्रयास करना  होगा। यदि वे ऐसा कर पाये तो अगले आम चुनाव में उनकी ​स्थिति बहुत ही अच्छी हो सकती है।  

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