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Tuesday, March 13, 2018

मोदी की विजय का कारण नौजवानों का समर्थन

मोदी की विजय का कारण नौजवानों का समर्थन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विभिन्न राज्यों के चुनाव में विजयी होते आ रहे हैं । इसका मुख्य कारण है कि नौजवान जो चाहते हैं मोदी वही बोलते हैं । उन्होंने देश के नौजवानों का मन जीत लिया है। 
  समाज वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न तरह के तर्क दिए जा रहे हैं, तरह तरह की दलीलें गढ़ी जा रहीं हैं। उदाहरणस्वरूप, नौजवान जैसा चाहते हैं वैसा उन्हें अभी तक नहीं मिला है या वे उससे अनजान हैं वगैरह-वगैरह। यही नहीं कारपोरेट सेक्टर द्वारा चुनाव में पैसा लगाना भी तर्क के रूप में पेश किया जा रहा है। वैसे यह बिल्कुल अलग बहस है । 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 19.7 प्रतिशत नौजवान बढ़ गए हैं जिनकी उम्र 15 से 24 वर्ष है । वामपंथी दल या कांग्रेस ने इस उम्र के नौजवानों  की अपेक्षाओं  कुछ
समझा नहीं।  यह 2013 के बाद से ही शुरु हुआ है। जब मोदी जी को  प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया गया तब अन्य राजनीतिक दल भविष्य के साथ तालमेल बैठाने में असफल हो गए। एकमात्र पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस  की नेता ममता बनर्जी ने नौजवानों की उम्मीदों को समझा और उसका सबूत सबके सामने है। वे राष्ट्रीय स्तर पर बहुत तेजी से उभरती हुई नेता हैं। मोदी जी या ममता जी के विजय के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण हैं जिसे अलग नहीं किया जा सकता। 
  ब्रांड मोदी ने नौजवानों की अपेक्षाओं को समझा और यह उम्मीद  पैदा की कि उनकी अपेक्षाओं को पूरा किया  जाएगा।  लेकिन गौर करें, ब्रांड मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं हैं। सबको मालूम है कि हमारे नौजवान रूढ़िवादी नहीं हैं। मोदी जी भाजपा के शहरी विकास के प्रतीक हैं साथ ही हिंदुत्व के बिम्ब भी हैं। भारत के नौजवान धार्मिक असहिष्णुता के बाद भी मोदी जी की ओर देख रहे हैं । कितनी बड़ी विडंबना है कि रोजगार और अर्थव्यवस्था  के मोर्चे पर मोदी जी  का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है फिर भी नौजवानों की उम्मीद कायम है।  इसका प्रमाण त्रिपुरा का चुनाव है। 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा ने " ट्रिकल डाउन " का एक नारा दिया जो  यूपीए के " समवेत विकास "  के नारे पर भारी पड़ा। दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री जगदीश भगवती ने अमर्त्य सेन की जो तीखी आलोचना की थी वह भी सबके दिमाग में होगी।  अमर्त्य सेन को यूपीए  का आर्थिक मस्तिष्क समझा जाता था।  सेन लोक कल्याण की वकालत करते थे। भाजपा जैसे ही सत्ता में आई उसने "मार्केट फ्रेंडली" की अपनी छवि को बनाए रखने के साथ ही साथ लोक कल्याण  विरोधी अपनी छवि को  अलग कर दिया । गौर करने वाली बात है कि वामपंथी या कांग्रेस किसी ने भी गुजरात  मॉडल के गुब्बारे में छेद करने में सफलता नहीं पाई और ना बंगाल सहित किसी भी राज्य में अपने बनाए गए मॉडल को पेश कर सकी। जबकि वामपंथी पार्टियों ने बंगाल में 34 वर्षों तक शासन किया था।
   भाजपा अब कई तरह के बोल बोल रही है। वह रंग- रंग के पत्ते फेंक रही है।  जब जैसी जरूरत होती है वैसा ही पत्ता फेंका जा रहा है । माकपा और कांग्रेस इस मामले में भाजपा से बहुत पीछे है। पश्चिम बंगाल में माकपा का गठबंधन 34 वर्षों तक शासन में रहा। 2004 और 2006 में बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगिक नीति को भारी समर्थन मिला। खास करके नव मध्य वर्ग ने इसे व्यापक समर्थन दिया।  लेकिन इसी वर्ग ने 2014 में इसे नकारा बता कर किनारा कर लिया । मोदी और शाह की जोड़ी ने गुजरात मॉडल को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया।  वैश्वीकरण के बाद शहरीकरण और मीडिया की  बहुलता ने समाज की चिंतन धारा को बदल दिया है। 2001 से 2011 के बीच शहरी आबादी 17% से बढ़कर 26% पर पहुंच गई । यानी, लगभग 9% आबादी शहरी और अर्द्ध शहरी  क्षेत्रों में बढ़ गई । इंटरनेट और मीडिया के बाहुल्य ने गांव में बैठे एक नौजवान को महानगरों की न केवल झलक दिखाया है बल्कि बल्कि वहां पहुंचने की ललक भी पैदा किया है। इससे उम्मीदें और अपेक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ गईं । शिक्षा के विकास और उसके बाद दुनिया को समझने की  ताकत बढ़ने के बाद कोई भी नौजवान अब खेती करना नहीं चाहता, जैसे उसके मां  पिताजी इत्यादि करते थे और ना खेती अब पहले की तरह किफायती रह गई ।खेतिहर मजदूर लगातार कम हो रहे हैं।  खेती से जुड़े अधिकांश लोग उद्योग और सेवा क्षेत्र के लिए बेकार हैं। अब से पहले की पीढ़ी के ज्यादातर लोग कृषि से जुड़े थे लेकिन अब कोई मां-बाप नहीं चाहता कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर खेती करें । वे शहरों  में गरीबी का जीवन बिताना अच्छा समझते हैं लेकिन गांव का जीवन नहीं स्वीकारते।

     1940 से 1980 के बीच के नौजवानों के लिए वामपंथ एक सपना था। हर नौजवान उसे ही आदर्श मानता था । यह केवल भारत की बात नहीं थी बल्कि पूरी दुनिया में ऐसा ही था ।आज हालात बिल्कुल विपरीत हैं। यद्यपि पश्चिमी देशों में  सैंडर्स और कोर्बिन जैसे नेताओं के कारण वामपंथ का उभार हो रहा है ,पर भारत में संसदीय वामपंथ एक तरह से आकाश कुसुम है। आज का युग  विशेषकर भारतीय नौजवानों का मानस वैश्वीकरण की देन है और उनकी जीवन शैली तकनीकी संचालित है । सत्योत्तर  विश्व में आदर्श और सामूहिक न्याय के लिए बहुत कम जगह है। आज का शहरी नौजवान संपन्न होना चाहता है और ऐसे में वामपंथ या कांग्रेस नौजवानों के भीतर सनसनी पैदा  करने में असफल है । 
   2020 तक भारत दुनिया का सबसे नौजवान देश हो जाएगा। शहरों में 29 वर्ष की आयु वर्ग के सबसे ज्यादा लोग मिलेंगे। कांग्रेस और वामपंथ का भविष्य इसी में है कि वे युवा वर्ग के लिए विकासशील आर्थिक और सामाजिक उदारवाद की राह तैयार करें । इसके साथ ही सामूहिक न्याय के प्रति वर्ग चेतना पैदा करें। इसके लिए उन्हें इंतजार करना होगा। उन्हें जागना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि आदर्श भारत के विचार की ऐतिहासिक भूमिका अब समाप्त हो चुकी है।

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