भाजपा की तात्कालिक चुनौतियां
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हैरोल्ड विल्सन का जुमला याद आता है। उनका कहना था कि राजनीति में एक हफ्ता बहुत समय होता है। भाजपा की पूर्वोत्तर भारत में विजय की खुशी की लहर उत्तर प्रदेश के फकत दो चुनाव क्षेत्रों में पराजय से खत्म हो गई । इस नतीजे ने उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में हिंदुत्व ब्रिगेड के समक्ष एक बड़ा चैलेंज पेश किया है। भाजपा एक पर एक चुनाव जीतकर गर्वित हो रही थी । अब यह विपक्ष की खुशी का मौका है। यहां आखरी समय में विपक्षी एक हो गए थे और भाजपा को धूल चटा दी । भाजपा के हाथ से गोरखपुर और फूलपुर की सीट निकल गई। यह दोनों सीटें बहुत महत्वपूर्ण थीं । क्योंकि , गोरखपुर की सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कारण खाली हुई थी और फूलपुर की सीट उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के विधानसभा में चुने जाने के बाद खाली हुई थी। एक साल पहले उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद भा ज पा को यह पराजय हाथ लगी। अगर इसका सीधा विश्लेषण किया जाए तो यह निष्कर्ष निकल सकता है कि भाजपा के प्रति जनता में असंतोष बढ़ रहा है। यदि भाजपा इन दोनों सीटों पर 50% से ज्यादा वोट जुगाड़ सकती , जैसा कि इन सीटों पर 2014 में हुआ था , तो सबके एकजुट होने के बाद भी कुछ नहीं बिगड़ता और उत्तर भारत में मोदी की लहर कायम रहती। 2014 में बिखरे हुए विपक्ष पर अपनी फतह का परचम लहराने के लिए भा ज पा को 42% वोट जुटाने पड़े थे और उसने 80 में से 71 सीटें हासिल की थीं। इसके एक सहयोगी दल "अपना दल" ने 2 सीटें पायीं यानी कुल मिलाकर भाजपा के खाते में 71 सीटें हो गयीं। यह वोट राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान भाजपा को मिले सकल वोट से 10% ज्यादा थे । 2017 में उत्तर प्रदेश में बसपा सपा और कांग्रेस के अलावा महागठबंधन जैसा कुछ नहीं था। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई और पार्टियां थी उनका भी कोई असर नहीं था। यह सारी पार्टियां वोट काटने के लिए थीं। इसके चलते उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी विजय मिली। यूपी में उनचालीस प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग समुदाय है जिसमें महज 9% यादव हैं। यहां तक की "पीस पार्टी " जिसने 2012 के चुनाव में 4 सीटें हासिल की थी उसे भी पिछड़े मुस्लिम वर्ग का समर्थन हासिल था।
अखिलेश यादव अपना हाथ जलाने के बाद शायद यह समझ गए होंगे कि कांग्रेस से गठबंधन का नतीजा क्या होता है । उन्होंने 2017 में निषाद पार्टी के संस्थापक संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद को गोरखपुर की सीट दे दी और नतीजा सबके सामने है। बसपा काडर आधारित पार्टी है और उसकी भावनाएं वोटों के रूप में साफ दिखाई पड़ती हैं। 1993 में कांशी राम और मुलायम सिंह यादव ने भाजपा के रथ को रोकने के लिए आपस में हाथ मिलाया था और उसके बाद इतिहास ने मार्च 2018 में अपने को दोहराया है। अब यह देखना है कि भाजपा और बसपा का गठबंधन कब तक कायम रहता है । क्या यह 2019 में भाजपा को सत्ता से आने से रोक सकेगा। यकीनन ऐसा हो सकता है बशर्ते उसे बिहार मॉडल अपनाने होंगे। 2015 में जदयू ,राजद और कांग्रेस ने मिलकर जो किया था उसका परिणाम सबके सामने है। कांशीराम ने जब बहुजनों के लिए इस पार्टी को बनाया था तो ऐसा ही कुछ सोचा था। इस मामले में कांग्रेस सबसे ज्यादा घाटे में रही। दोनों सीटों पर उसके उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा सके । कांग्रेस का राज्य में अब कोई आधार नहीं रह गया है। कुछ खास इलाकों में उसके समर्थक ज़रूर हैं । अखिलेश यादव ने चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद 14 मार्च को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती को धन्यवाद दिए जाने के अलावा एनसीपी और रालोद को भी धन्यवाद दिया। अब वक्त आ गया है कि कांग्रेस व्यापक परिपेक्ष्य में अपने को देखे, और उसे क्षेत्रीय दलों से मिलकर आगे बढ़ने की जरूरत है। योगी के लिए कुछ नहीं बिगड़ा है बस वोट बटोरने वाले और एक अच्छे प्रशासक की उनकी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। अब उत्तर प्रदेश में दिलचस्प समय आने वाला है । हो सकता है भाजपा वहां समाज विभाजन की राजनीति शुरु कर दे।
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