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Wednesday, March 28, 2018

कितने मुनासिब हैं ये लोग ....

कितने मुनासिब हैं ये लोग ....

जब नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार कर रहे थे तो  देश  भर में देशभक्ति का एक खास किस्म का माहौल  तैयार किया गया था।  उसके बाद जब वह प्रधानमंत्री बने तो स्वाभवत:  यह उम्मीद बनने लगी कि वह सेना को मजबूत बनाएंगे , क्योंकि पिछले कई वर्षों से सेना को लेकर भाजपा सत्तारूढ़ दलों पर टीका टिप्पणियां  करती रही थी। सरकार ने सैनिकों की  खूब बड़ाई की और अपने चारों तरफ देशभक्ति का गिलाफ लपेट लिया।  लेकिन, हाल में रक्षा मंत्रालय से  जुड़ी संसदीय समिति  की रपट में रहस्योद्घाटन हुआ है कि जब सुरक्षा विभाग में धन का आवंटन करना था जो सरकार में इतनी देशभक्त नहीं थी जितनी वह दिखाती है।  आमतौर पर सुरक्षा बजट सकल घरेलू उत्पाद का 2% हुआ करता था लेकिन पिछले 2 वर्षों से यह घटकर  1.56 प्रतिशत  और 1.4 प्रतिशत हो गया। इस कमेटी की अध्यक्षता भाजपा  सांसद अवकाशप्राप्त मेजर जनरल बी सी खंडूरी थे। समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सेना के 68% हथियार पुराने ढंग के हैं और  महज 24% हथियार आधुनिक प्रकार के हैं।  केवल 8% ही पूरी तरह आधुनिक हैं। सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद ने  समिति को बताया की अपर्याप्त   धन  के कारण कुछ नया नहीं हो पा रहा। जो कुछ मिलता है वह नियमित खर्चों में निकल जाता है। अचानक या आपात खरीदारी नहीं हो पाती है। इसके चलते हथियारों की क्षमता पर भी प्रभाव पड़ रहा है और साथ ही समय पर भुगतान नहीं होने के कारण कानूनी दिक्कतें आ रही हैं। धन की कमी से एक क्षेत्र तो बुरी तरह प्रभावित हो रहा है, वह है सैनिक अड्डों और  संस्थापनाओं की हिफाजत।  उड़ी, नगरोटा  और शुंजवान पर हमले के बाद यह बहुत जरूरी हो गया है।  यह सुनकर कोई भी  प्रभावित हो सकता है आने वाले वित्त वर्ष में सेना को 2 लाख 79 हजार 305 करोड़ों रुपए मुहैया कराए गए हैं। इसके साथ ही 1 लाख 8 हजार 853 रुपए पेंशन के लिए दिए गए हैं। इतनी बड़ी रकम के बारे में सुनकर हैरत में पड़ना और प्रभावित होना स्वाभाविक है। लेकिन, यह सोचिए भारतीय सेना दुनिया की सबसे बड़ी सेना है और उसे प्राप्त धन का एक बड़ा हिस्सा वेतन तथा भत्तों में निकल जाता है, जो बचता है वह हथियारों के रखरखाव मैं खत्म हो जाता है। 

  वास्तविकता तो यह है की तीनों सेनाओं ने नए हथियार खरीदने के लिए 1 लाख  72हजार 203 करोड़ रुपयों की मांग की थी और उन्हें  दिया गया केवल 93हजार 982  करोड़। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं नए हथियार खरीदने की बात तो दूर फौज के पास इतना रुपया नहीं रह जाता है कि जिन हथियारों के लिए पहले से ऑर्डर दिए जा चुके हैं  उनके लिए समय पर भुगतान किया जा सके। 

 बड़ी-बड़ी बातें करने वाली सरकार, दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने की बात करने वाली सरकार की सेना की यह हालत है कि उसके पास 40 दिनों तक युद्ध करने के गोला बारूद भी पर्याप्त नहीं हैं और अगर जमकर युद्ध हो तो गोला - बारूदों का मौजूदा भंडार महज 10 दिन चल सकता है। सरकार ने 2,246 करोड़ रुपयों  के मूल्य के गोला बारूद खरीदने की सहमति के बाद 9,980 करोड़ रुपयों की खरीद की  बातचीत चल रही है। फौज के पास जो अभाव है उसे पूरा करने की 6,380 करोड़ों  की जरूरत है। जब कि उसे मात्र  3600 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए। इसका मतलब है देश फिलहाल छोटे युद्ध  में भी नहीं टिक सकता। 

  यही नहीं हमारी पूरी सुरक्षा प्रणाली आयातित हथियारों पर टिकी हुई है। स्टॉकहोम की एक संस्था पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2017 के बीच भारत परिष्कृत हथियारों के मामले में दुनिया का  सबसे बड़ा  आयातक देश  रहा है। दुनिया में कुल जितने हथियार आयात किए जाते हैं उसका 12% तो भारत आयात करता है और 2008 से 2012 तथा 2013 से 2017 के बीच  यह  औसत 24% हो गया।

   कोई भी देश अगर खुद हथियार नहीं बनाता और उसकी डिजाइन नहीं तैयार करता है तो कभी महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति नहीं बन सकता। क्योंकि जो हथियार बाहर  बनाए जाते हैं वह उत्पादक देश की जरुरत के अनुसार डिजाइन किए होते हैं और दूसरी परिस्थितियों में जाकर उसने कारगर नहीं होते। इसमें सबसे बड़ी विपदा तो यह है कि सुरक्षा मंत्रालय ने निर्देश दे रखा है कि चीन और पाकिस्तान से दोहरी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार रहें। अगर संसदीय समिति की रिपोर्ट सही है तो हमारी स्थिति अकेले पाकिस्तान से युद्ध के लायक भी नहीं है चीन तो दूर की बात है।

    सेना  जिन मुश्किलात से दो चार है उसका समाधान सब जानते हैं। पहला और सबसे जरूरी है कि सर्वोच्च स्तर पर सुधार किए जाएं और तीनों सेना एक टीम की तरह काम करे। इसके लिए जरूरी है सुरक्षा मंत्रालय दो स्तरों पर सलाह मशविरा करे। पहला स्तर फौजी अफसरों का होगा और दूसरा सिविल सर्विस के अफसरों का। दोनों की अलग अलग समितियां बनाकर  उनसे मशवरा करें। रक्षा मंत्रालय का दुर्भाग्य तो यह है कि विशेषज्ञ  सैन्य सलाहकार के बावजूद सरकार  सिविलियन अफसरों से  मशवरा करती है।   यह अफसर वास्तविक स्थिति और मामलों को प्रक्रियागत फंदों में उलझा देते हैं, ताकि   सेना पर उनका वर्चस्व बना रहे। इसके कारण हथियार खरीद की कोशिश थम  गई और तीनों सेना  आधुनिकीकरण अटका पड़ा है। खतरे चारो तरफ मंडरा रहे हैं। अगर जंग होती है तो हमारी सरकार हमारे फौजियों एक तरह से खुदकुशी के लिये झोंक देगी।

मिलती नहीं कमीज तो पांवों से पेट ढंक लेंगे

कितने मुनासिब हें ये लोग इस सफर के लिये 

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