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Monday, September 10, 2018

कश्मीर में आतंकियों का साइबर युद्ध

कश्मीर में आतंकियों का साइबर युद्ध

कश्मीर में आतंकी संगठनों ने इस बार जिहाद का नया तरीका अपनाया है। उसे  "ई जिहाद" कह सकते हैं।  यह एक तरह से साइबर युद्ध है। एक तस्वीर इंटरनेट पर जारी कर दी जाती है और वह कुछ ही मिनटों में पूरी घाटी में छा जाती है। कश्मीर में सबसे बड़ा अभाव बौद्धिक और सिद्धांतिक विकल्प का है और यह अभाव पूरे कश्मीर समाज को बर्बाद कर रहा है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में या प्रगतिशील मीडिया में पैलेट गन से घायल हुए कश्मीरियों की तस्वीरें और उनके बारे में खबरें प्रसारित की जाती हैं लेकिन घायल सैनिकों के बारे में कुछ नहीं कहा जाता है, उनकी तस्वीरों को भी ज्यादा तरजीह भी नहीं दी जाती । कश्मीर में आतंकी संगठन अपने प्रचार प्रसार की समरनीति को बड़ा आक्रामक बनाते जा रहे हैं। वे आतंकवाद में आए नए नौजवानों की तस्वीरों को इंटरनेट पर डाल देते हैं और यह तस्वीरें चुटकी बजाते ही घाटी में प्रसारित हो जाती हैं। इससे एक नया माहौल बनने लगता है। यह नया तरीका कश्मीर में भावनात्मक स्तर पर कश्मीरी नौजवानों को भड़का रहा है। इसकी शुरुआत बुरहान वानी ने 2 साल पहले की थी।  उसकी गैंग के नौजवान सेना की वर्दी जैसा ड्रेस पहनते थे लेकिन अब हिजबुल मुजाहिदीन ने उसमें बदलाव किया है। नए नौजवान नीली वर्दी पहन रहे हैं । तस्वीरों में उनका दाहिना हाथ ऊपर है और एक उंगली आकाश की ओर संकेत कर रही है। यह ओसामा बिन लादेन की स्टाइल है । वह इसी अंदाज में अपने अनुयायियों को संबोधित करता था और बाद आईएस की विचारधारा फैलाने के लिए इस स्टाइल का उपयोग होने लगा। घाटी में जिन नौजवानों की तस्वीरें जारी होती है उनके साथ एक कुरान भी होती है और यह वहां की राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं की ओर इशारा करती है। इनका आत्म विश्वास और इनके हथियार इनकी ताकत हैं। आसमान की तरफ इशारा करती  तर्जनी का अर्थ है इस अभियान में दिव्य शक्तियां उनके साथ हैं। उन्होंने  नकाब नहीं पहन रखा है इसका मतलब है कि उन्हें पहचाने जाने का डर नहीं है। यह कम उम्र नौजवानों में एक नई भावनाओं का संचार करता है । कश्मीर के आतंकवाद में इन तस्वीरों की बहुत बड़ी भूमिका है। तस्वीरें जारी होते ही पूरी वादी में फैल जाती हैं। यह कश्मीरी समाज में आतंकियों का महिमामंडन है। इससे एक भाव पैदा होता है कि कश्मीर में फौज से लड़ना एक सामाजिक सम्मान है। यह कुछ - कुछ वैसा ही है जैसा भारतीय आजादी के युद्ध में क्रांतिकारियों ने शहादत को सामाजिक सम्मान से जोड़ दिया था और लोग मरने से डरना छोड़ दिए थे। सोशल मीडिया ने भी उन्हीं भावनाओं को हवा देना शुरु किया है। फ़र्ज़ी तस्वीरें जारी होती है दूसरी तरफ कश्मीरियों के दुख और उनकी समस्याओं को बुरी तरह बढ़ा-चढ़ाकर लोगों के सामने पेश किया जाता है।  नौजवानों में हथियार उठाने के काम को झूठी शान के सपने से जोड़ दिया जाता है।
       प्रचार की रणनीति कश्मीर में आतंकवाद का हिस्सा बनती जा रही है और वहां की संस्कृति में शामिल होती जा रही है। हकीकत पर पर्दा डालकर मारे गए आतंकियों को शहीद बनाकर पेश किया जा रहा है। उनकी बहादुरी की कहानियां प्रचारित होती जा रही हैं, उन्हें नायकों की तरह महिमामंडित किया जा रहा है और इसका असर कश्मीरी नौजवानों पर साफ दिखने लगा है। मारे गए आतंकियों के जनाजे में हजारों की भीड़ जमा होने लगी है और यह फिल्म मानव ढाल की तरह हो गई है। इससे एक बात और भी सामने आती है कि इस भीड़ को चीरकर सच्चाई सामने नहीं आ सकती। सोशल मीडिया से कश्मीर की संस्कृति में परिवर्तन का नया इतिहास लिखा जा रहा है। इसे कैसे समझना है और इसका उत्तर कैसे देना है यह दिल्ली और श्रीनगर के राजनीतिक नेतृत्व को देखना होगा। सोशल मीडिया पर प्रसारित की जा रही है तस्वीरें लोगों को भावनात्मक रूप से ना केवल तैयार कराती है बल्कि  उनमें भारत के प्रति एक खास किस्म के गुस्से का भी संचार करती है । यही नहीं यह तस्वीरें  एक नई कहानी भी प्रचारित कर रही हैं और वह है कि बंदूक की नोक से आजादी हासिल की जा सकती है। यह कहानी आहिस्ता-आहिस्ता घाटी में ठीक  वैसी ही मिथक बनती जा रही है जैसे चंद्रशेखर आजाद की मूंछ ऐंठती  तस्वीरें या कमर में पिस्तौल लगी तस्वीरें बन गई।   घाटी में प्रचारित ये तस्वीरें नए सपनों का निर्माण कर रही हैं। वह है अगर बंदूक उठा लीजिए तो शोहरत मिलेगी और अगर शहीद हुए तो 72 हूरों का रास्ता खुला हुआ है। कश्मीरी समाज और प्रशासन के पास ना कोई बौद्धिक और ना ही कोई सिद्धांतिक विकल्प है। इसके अभाव में यह झूठ आग की तरह फैल रहा है और कश्मीरी समाज बर्बाद हो रहा है। अब से पहले की पीढ़ी अपनी मांगें राजनीतिक ढंग से या राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से पूरा करवाना चाहती थी और अब यह नौजवान उन मांगों को हथियारों के बल पर हासिल कर लेना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर प्रसारित ये तस्वीरें  मौत और आतंक को महान बनाती जा रही हैं। यह  तस्वीरें मिथ्या रणनीति गढ़ रही हैं। दूसरे शब्दों में आतंकवाद में मारे गए नौजवानों को समाज के सामने महान बना कर पेश किया जा रहा है।
       इसके साथ ही भारतीय फौजियों की तस्वीरों में कंप्यूटर से  छेड़छाड़ कर उन्हें इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे वह कश्मीरी समाज का दमन कर रहे हैं । उसे देखते ही कश्मीरी समाज में गुस्सा भड़क उठता है और उनके मुंह से एक ही शब्द निकलता है "कश्मीर से बाहर जाओ।" हालत यह है कि अगर गूगल में कश्मीर में घायल सैनिकों की तस्वीर खोजें तो बहुत कम मिलेगी लेकिन अगर कश्मीर की जनता पर जन्म करते सैनिकों की तस्वीर खोजें तो बहुत मिल जाएगी। सैनिकों को बदनाम करती तस्वीरें और खबरें अक्सर मीडिया में दिखाई पड़ती हैं ।यह सही है कि कश्मीर में मानवाधिकार में उल्लंघन की खबर दुनिया के सामने लाना जरूरी है लेकिन इसके साथ ही सुरक्षाबलों के आत्मबलिदान और उनकी सतर्कता को भी दिखाना जरूरी है। साथ ही सुरक्षाबलों के बारे में यह भी बताना जरूरी है कि वह किसी भी जांच का स्वागत करती रही है। लेफ्टिनेंट उमर फैयाज, राइफलमैन औरंगजेब और पुलिस अधिकारी अयूब पंडित उसी कश्मीरी समाज के लोग थे लेकिन उनके बारे में देश के कितने लोग जानते हैं। उनकी शहादत को लेकर कहीं कोई नारेबाजी नहीं हुई क्योंकि उनकी शहादत कश्मीरी समाज के सकारात्मक पहलू को दिखा रही थी। क्या यह जानना कश्मीरी समाज के लिए उचित नहीं है । भारत के हित में आवाज उठानी होगी वरना भारत के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। सुरक्षाबलों के हमारे नौजवान अपने काम पर अड़े हुए हैं । उनका मोटो है 'पहले सेवा।' कश्मीर में मोर्चे खुल चुके हैं । एक तरफ बुरहान वानी के भक्त हैं तो दूसरी तरफ लेफ्टिनेंट फैयाज के साथी। अब किस पर भरोसा करें यह कश्मीरियों को चुनना होगा। कश्मीर की जनता को तय करना होगा।

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