एक क्रूर विरोधाभास
विख्यात विचारक गैटी ने कहा है कि "दौलत खाद की तरह होती है अगर इसे फैलाएंगे नहीं तो बदबू आने लगेगी। " रघुराम राजन ने कहा था कि" भारत आज भी प्रति व्यक्ति के आधार पर दुनिया का सबसे गरीब और बड़ा देश है और हर नागरिक के दुखों एवं चिंताओं को दूर करने के लिए हमें बहुत लंबी यात्रा करनी पड़ेगी।" भारत में उस समय बहुत हर्ष महसूस होता है जब कोई विदेशी स्रोत से यह लुभावना बयान आता है कि भारत का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा है। हाल में प्राइस वाटर हाउस कूपर्स की यह रिपोर्ट "2050 में दुनिया" में कहा गया है क्रय शक्ति के मामले में भारत 2040 तक अमरीका से आगे बढ़ जाएगा। इस आधार पर भारत चीन के बाद सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति हो जाएगा। रिपोर्ट मे यह भी कहा गया है कि भारत 2040 तक अमरीकी अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ जाएगा।
ऐसी लुभाने बातें ज्योतिषीय भविष्य वाणियों की तरह होती है और यह समाज के उच्च वर्ग के लोगों में व्याप्त राष्ट्रवाद के पागलपन को शायद ही कम करती हैं। जहां तक अति राष्ट्रवाद का प्रश्न है हम हमेशा यह कहते रहते हैं ऐसे देश में हम रह रहे हैं की अंततोगत्वा दुनिया ने हमारा लोहा माना और हमें सम्मान देना शुरू कर दिया। इस तरह का ताल ठोकना बड़ा अजीब लगता है। क्या आत्मछल नहीं है? इस तरह आत्मप्रवंचना लगातार चलते रहने से हम उस पर भरोसा भी करने लगते हैं। यह कितना अजीब है एक तरफ हम और हमारे नेता यह कहते चल रहे हैं कि भारत एक तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और हम जल्दी ही महाशक्ति बनने वाले हैं, और दूसरी तरफ हमारा सामाजिक विकास का सूचकांक लगातार कम होता जा रहा है एक तरफ तो हम सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से आगे बढ़ रहे हैं दूसरी तरफ समाज के बहुत बड़े समुदाय की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है इससे ज्यादा बड़ा सबूत क्या मिलेगा कि जब आप महानगर कोलकाता या किसी भी अन्य महानगर की गगनचुंबी इमारतों के छत पर खड़े हो जाएं और चारों तरफ नजर दौड़ाएं है तो वहां कीड़े मकोड़े की तरह लोग और झोपड़ियां नजर आएंगी। इन झोपड़ियों में विभिन्न स्तर के लोग निवास करते हैं जो ना केवल किसी गड्ढे में जमे हुए पानी में कपड़े धोते हैं बल्कि स्नान भी करते हैं । यही नहीं जनगणना के आंकड़े भी गरीबी की कठोर सच्चाई बताते हैं । जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश के आधे बच्चों की आबादी का वजन चिकित्सा विज्ञान के मानदंडों से कम है। अमर्त्य सेन और ज्यां ड्रेज के अनुसार देश में साक्षरता बढ़ी है लेकिन देश के बच्चों की बहुत बड़ी आबादी स्कूल में बहुत पढ़ पाती है। लगभग सभी भारतीय निजी सेवा प्रदाता या डॉक्टरों से इलाज करवाते हैं। जो निजी डॉक्टरों की फीस नहीं दे पाते वह झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में फंस जाते हैं और कर्ज में डूबते जाते हैं। गैरबराबरी हर क्षेत्र में बढ़ी है और सबसे ज्यादा चिंता का विषय है कि पर्याप्त शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बगैर इसे कम भी नहीं किया जा सकता। बेशक भारत में गरीबी कम हो रही है लेकिन कम होने की दर बहुत धीमी है। गरीब अच्छा खाना नहीं खा पाते। यहां अच्छे खाने से तात्पर्य कि वे अपने भोजन में उचित मात्रा में प्रोटीन और कैलशियम नहीं ले पाते। इससे भी ज्यादा हैरतअंगेज है कि अबतक की सभी सरकारों द्वारा आर्थिक उदारवाद के बावजूद गरीबों को या कहें बड़ी संख्या में लोगों को आर्थिक रूप में सशक्त नहीं किया जा सका। वस्तुतः भारत में आर्थिक उदारीकरण से सिर्फ 10% आबादी को लाभ हुआ है। खासतौर पर, विशेष आय वर्ग के 1% लोग हैं उनको लाभ हुआ है। शाइनिंग इंडिया की आवधारणा सिर्फ 10% आबादी से जुड़ी है। विख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु के अनुसार "भारत के कुल विकास का मतलब आनुपातिक नहीं है यह केवल समाज के अमीरों से जुड़ा है।" लेकिन ये शुष्क आंकड़े सारी बात नहीं कह सकते, सारी पीड़ा का बयान नहीं कर सकते। जैसा कि अमर्त्य सेन और ज्यां ड्रेज ने अपनी पुस्तक "अनसर्टेन ग्लोरी: इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन" में कहा है कि गैरबराबरी उस समय और दुखदाई हो जाती जब कम आय वर्ग के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों की चीजें नहीं खरीद सकते । ऐसी स्थिति में अमीर और गरीब के बीच की खाई और बड़ी हो जाती है। हमारे सामाजिक सूचकांक अभिव्यक्त नहीं कर सकते कि गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को धन नहीं दिए जाने का मुख्य कारण यह है कि इसे बड़े लोगों के लाभ के लिए लगाया जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक 2005-06 से 2013-14 के बीच कारपोरेट घरानों को 36.5 खराब रुपए दिए गए। इस राशि से लगभग 105 वर्ष तक महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना को चलाया जा सकता था और साथ ही 31 वर्ष तक तक राशन की दुकानों में राशन मुहैया कराया जा सकता था। मोटी रकम कारपोरेट घरानों को देकर बैंक न केवल अपना घाटा बढाते हैं बल्कि उन्हें बट्टे खाते में डाल देते हैं। भारत अपने जीडीपी का केवल 4.4 प्रतिशत स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करता है जबकि अफ्रीका जैसे देश में 6.3% खर्च होता है। मोदी जी की जब से सरकार बनी हालात और बिगड़ने लगे । आधार के झंझट ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कठिनाई पैदा कर दी और इसके सबसे ज्यादा शिकार गरीब हुए ।आधार से गरीबों को होने वाली कठिनाइयों को देखें। यह गरीब लोगों को राशन व्यवस्था से दूर रखने का उपक्रम है। भारत की विकास कथा में एक खलनायक भी है जो इस गैरबराबर समाज में सदा कायम रहता है और उसे हुकूमत का समर्थन हासिल है। वह यहां का 1 प्रतिशत अमीर समुदाय।
Tuesday, September 18, 2018
एक क्रूर विरोधाभास
Posted by pandeyhariram at 5:48 PM
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