CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Wednesday, September 5, 2018

रुपये को संभालना होगा

रुपये को संभालना होगा
समस्त मनोवैज्ञानिक अवरोधों को  लांघकर डॉलर के मुकाबले रुपए का भारी अवमूल्यन हो गया। एक डॉलर का मूल्य 71 रूपया पहुंच गया । चालू कैलेंडर वर्ष में यह लगभग 9% अवमूल्यन है। उधर, सरकार इस खुशफहमी में है   कि रुपए की कीमत बाहरी कारणों के कारण गिर रही है और यह एकदम अस्थाई है। किसी भी समस्या को इनकार करने का यह मतलब नहीं है  समस्या है ही नहीं। जब से सरकार ने शपथ ली है तब से यह राजनीतिक रूप से  हानि पहुंचाने वाली नीतियों के प्रभाव को इंकार करती आ रही है। सच तो यह है कि सरकार ने अर्थव्यवस्था को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं । फिलहाल जो रुपए कीमत गिरी है उसका कारण है संस्थागत, ढांचागत और नीतिगत निर्णयों का गलत होना है। वास्तविकता तो यह है कि सरकार का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है और वह अब तक देश को  एक पूर्णकालिक और पूर्ण अधिकार प्राप्त वित्त मंत्री और स्थाई वित्त मंत्रालय नहीं मुहैया करा सकी। सरकार ने "न्यूनतम शाशन क्रम और अधिकतम शासन" के बहाने वित्त मंत्रालय को सुरक्षा और कारपोरेट मामलों के साथ जोड़ दिया है तथा अरुण जेटली को इन तीनों मंत्रालयों को चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी है। प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि वह अपने मंत्रियों का चयन करें और उन्हें पद आवंटित करें  लेकिन वित्त मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय को स्थायित्व और विशेषज्ञता की आवश्यकता है अन्यथा समस्त अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव पड़ेगा। जिस तरह जहाज अधिक समय तक बिना कप्तान के रहे तो उसके परिचालन में अव्यवस्था हो जाती है ठीक वही हाल यहां भी है। पीयूष गोयल पूर्णकालिक और पूर्ण अधिकार प्राप्त मंत्री के रूप में काम नहीं करते हैं और अरुण जेटली वहां हुकुम चलाते हैं। जबकि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। भारत की स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में यह पहली सरकार है जिसमें हर मंत्री अपने सहयोगी मंत्री के काम को लेकर व्यस्त है  खुद के मंत्रालय की कोई चिंता नहीं है । यद्यपि, अरुण जेटली वित्त मंत्रालय में लौट आए हैं लेकिन राफेल सौदे पर रक्षा मंत्री की रक्षा में लगे हैं ।  भारतीय रुपए में अंतरराष्ट्रीय बाजार का भरोसा कम हो गया है। नोटबंदी के बाद सरकार ने कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किए ताकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में रुपया मजबूत हो सके । जो गड़बड़ी हुई वह उस समय हुई जब अंतरराष्ट्रीय बाजार तेजी पर था किंतु गफलत से भरी नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था उसका लाभ नहीं उठा सकी। अब जबकि 18 अरब डालर का व्यापार घाटा हो चुका  है तो भारतीय रुपया की यह स्थिति आयात पर भारी अघात पहुंचाएगी। सैद्धान्तिक  रूप से तो यह कहा जा सकता है कि इस अवमूल्यन से निर्यात की मात्रा बढ़ेगी और जो नुकसान हुआ है वह निर्यात बढ़ने के कारण पूरा हो जाएगा। ऐसा होने के लिए जरूरी है कि हमारे पास बहुत ज्यादा माल हो और वह हमारी जरूरतों से अलग हो । लेकिन जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं उससे  ऐसा नहीं लगता। निर्यात क्षेत्र में एक संख्या( सिंगल डिजिट ) का विकास हो रहा है । "मेक इन इंडिया " का इतना ढोल पीटा गया, उसे भारतीय निर्यात प्रतियोगिता को बढ़ावा देने वाला बताया गया। लेकिन क्या हुआ चार साल में भी वह शुरू नहीं हो सका। आयात की बढ़ती कीमत और निर्यात की प्रतियोगिता के अभाव के कारण चालू खाते का घाटा और बढ़ेगा । इसके अलावा कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमत महंगाई को हवा देगी। क्योंकि तेल की कीमत डॉलर से जुड़ी है और नतीजतन जीवन यापन महंगा हो जाएगा। डॉलर के मुकाबले रुपये का 71 के अंक पर पहुंचना बहुत बड़ी बात है । फोरेक्स के विश्लेषक लगातार यह चेतावनी दे रहे हैं कि रूपया ₹75 तक जा सकता है और अगर ऐसा होता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत दिक्कत आ जाएगी। बहुत मशहूर कहावत है कि " कमजोर मुद्रा अशक्त अर्थव्यवस्था की पहचान है और अशक्त अर्थव्यवस्था एक कमजोर राष्ट्र की पहचान है । " वर्तमान स्थिति की मांग है कि सरकार और रिजर्व बैंक हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं बल्कि विनिमय दर की वृद्धि  के प्रभाव को झेलने के उद्देश्य से घरेलू अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए तत्काल कदम उठाए।
     सरकार विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई)  के तेजी से खत्म होने के मद्देनजर सरकार उस के बारे में भी विचार कर सकती है। आपूर्ति से अलग सरकार निर्यात प्रतियोगिता बढ़ाने के लिए भी उपाय कर सकती है। बार बार आयात शुल्क में वृद्धि से कुछ होने वाला नहीं है तथा ब्याज दर में भी वृद्धि से कोई फायदा नहीं होगा । अगर हम मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकते हैं तो इससे मुद्रा की कीमत बढ़ेगी, भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का असर रोजगार हो या विकास दर झेल नहीं सकती क्योंकि इसे संचालित करने वाले और सरकार दोनों अवमूल्यन और मुद्रास्फीति के खतरनाक चक्र को खंडित नहीं कर सकते।
     फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वनिर्मित अर्थ व्यवस्था के उतार चढ़ाव से जूझ रहे हैं और लगता है कि एक डॉलर सौ रुपए का हो जाएगा और तेल की कीमत भी वहीं पहुंच जाएगी। जबकि हौसला अफजाई करने वाले भगत समूह इस पर ताली बजा रहे हैं। यह तो   वही मसल हुई कि "रोम जल रहा था  और नीरो बांसुरी बजा रहा था" या यह कहें कि "आग लगी हमरी झोपड़िया में हम गावें मल्हार। " अगर जल्दी ही कुछ नहीं किया गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़े संकट में पड़ सकती है और इसका परिणाम बहुत खतरनाक होगा ।

0 comments: