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Tuesday, September 11, 2018

रुपयों का गिरना कितना हानिकारक?

रुपयों का गिरना कितना हानिकारक?
हमारे देश में एक कहावत हुआ करती थी कि रुपयों का गिरना अशुभ होता है। लेकिन इस कहावत में रुपयों के गिरने का अर्थ है आप की गांठ के रुपयों का गिरना। लेकिन यहां इसका अर्थ डॉलर के मुकाबले रुपयों की का कम होना है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे अवमूल्यन कहते हैं। अवमूल्यन का अर्थ है कि आयात में एक डॉलर मूल्य की वस्तु की खरीद के लिए पहले जितना रुपया चुकाया जाता था उससे ज्यादा चुकाना पड़ता है। अभी कुछ दिनों से हमारे देश में रुपयों का गिरना लगातार जारी है। वैसे अर्थशास्त्रियों का कहना है कि किसी भी मुद्रा की कीमत कभी स्थाई नहीं होती। उसमें सदा बदलाव होते रहते हैं । रह गई रुपए की बात तो वह मुद्रा बाजार में डॉलर की मांग के अनुरूप बढ़ती है या घटती है । ऐसे में कई बार स्वाभाविक तौर पर इसका अवमूल्यन होता है कई बार अधिमूल्यन भी हो जाता है। अधिमूल्यन का अर्थ है कीमत का बढ़ जाना। यह बाजार का अर्थशास्त्र है। परंतु जब कोई सरकार  खुद अपनी मुद्रा की कीमत घटाती है तो उसका असर बहुत दूर तक होता है । हमारा देश कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर टिका है। आज भी कहा जाता है कि "भारत माता ग्रामवासिनी।" लेकिन, यह विडंबना है कि गांव में आधुनिकता की लहर पहुंच रही है और यह स्वाभाविक भी है इसे रोका नहीं जा सकता। एक समय था कि जब किसी के पास ज्यादा जमीन होती थी तो अपने गांव में अमीर कहा जाता था, लेकिन जब पूंजी आधारित उत्पादन होने लगा और दौलत पूंजीपतियों के पास आने लगी तो वक्त बदल गया। सूचना तकनीकी का उदय हुआ और नॉलेज इकॉनमी का बोलबाला होने लगा। जिसके पास तकनीक को नियंत्रित करने की ताकत थी वह अमीर हो गए। समय के साथ समृद्धि के प्रवाह की धारा और दिशा दोनों बदल जाती हैं । उसके साधन और मापदंड में भी बदलाव आ जाता है। जो लोग कभी अमीर थे वह यदि खुद को नहीं बदलते हैं उन की दौलत दिनों दिन कम होती जाएगी। जिन्होंने खुद को समय की मांग के अनुसार बदल दिया वह अमीर हो जाएंगे। ऐसा ही एक मंजर आज हमारे सामने है। बदलाव की लहर चल पड़ी है और यह लहर जैसे जैसे ताकतवर होगी धन के प्रवाह की दिशा भी बदलती जाएगी। इस लहर को समझने के लिए हमें पहले उसकी पृष्ठभूमि को समझना होगा। 1933 की वैश्विक मंदी अर्थशास्त्र का इतिहास पढ़ने वालों को याद होगी। उस समय अमरीका के राष्ट्रपति थे फ्रेंकलिन रूजवेल्ट। उन्होंने डॉलर और सोने के संबंध को भंग कर दिया। उनका उद्देश्य था की अर्थव्यवस्था में जरूरी धन का निवेश कर सकें और ब्याज दर को काबू में किया जा सके।
       रूजवेल्ट का फैसला अमरीका को मंदी के जाल से बाहर निकाल लाया। इसके बाद दूसरे विश्व युद्ध के कारण बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई और उन देशों ने भी रूजवेल्ट के नक्शे कदम पर चलते हुए अपनी मुद्रा को सोने से अलग कर दिया। क्योंकि अर्थव्यवस्था को चालू रखने के लिए जितने नोट छापने थे उस मुकाबले उन देशो के पास सोना नहीं था। मुद्रा को सोने से अलग करने का चलन दुनिया में शुरू हो गया। फिर भी 1971 तक अमेरिका ने कई सरकारों को डॉलर के बदले उतने ही मूल्य का सोना देने का क्रम जारी रखा। 1971 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस क्रम को भंग कर दिया और सोना डॉलर से अलग हो गया । इसके बाद डॉलर छापने के लिए सरकारी खजाने में उतने मूल्य के सोने का होना जरूरी नहीं रह गया। विश्व मुद्रा कोष दुनिया के 185 से भी अधिक देशों की अर्थव्यवस्था की निगरानी करता है। डॉलर को 1938 से वैश्विक मुद्रा सम्मान हासिल है । 20 साल पहले यूरो को भी यह दर्जा मिला और 4 साल पहले चीनी मुद्रा युवान को भी वह सम्मान प्राप्त हो गया । युवान का प्रभाव भविष्य में हमारे सामने आएगा। चीनी सामान से दुनिया के बाजार भरे हुए हैं । हो सकता है आगे चलकर डालर का भाव गिर जाए और युवान का बढ़ जाए। बदलाव की लहर शुरू हो चुकी है। जैसे -जैसे यह लहर प्रबल होगी वैसे वैसे यह स्पष्ट होगा कि कौन से लोग अचानक अमीर हो गए और कितने पुराने रईसों दौलत कम हो गई । इतिहास देखें तो पता चलेगा जब डॉलर का सोने से अलगाव हुआ है तब उसका मूल्य गिरा है। लेकिन उस अवमूल्यन से अमरीकी अर्थव्यवस्था पर आघात नहीं लगा है उल्टे वह मंदी की मार को झेलकर उठ खड़ा हुआ है ।एक वक्त ऐसा भी आया था जब राष्ट्रपति बुश जापान जा कर सहारे के लिए गिड़गिड़ाने लगे थे । लेकिन उस समय दुनिया में कई ऐसी घटनाएं घटीं जिससे डॉलर को बल मिल गया। अब जबकि युवान ताकतवर हुआ है तो आशंका है कि डॉलर गिरेगा और इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था का संतुलन बदलेगा। डर है कई पुराने अमीर रातो रात धराशाई हो जाएंगे।
       जहां तक भारत की बात है हमारा रुपया डॉलर के मुकाबले तेजी से कमजोर हो रहा है। इसे लेकर बहुत शोर मचा हुआ है जरूरी भी है। क्योंकि आम जनता मुद्रा के अवमूल्यन के डायनामिक्स को समझती नहीं है । जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस समय रुपए की गिरती कीमत को लेकर बहुत बवाल मचा था। भाजपा नेताओं ने इसे देश की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया था । रुपए का गिरना भारत का अपमान बताया जाता था। आज मोदी जी और उनकी पार्टी उसी स्थिति में है जिस स्थिति में पहले कांग्रेस थी । उन्हें भी तो खामियाजा भुगतना पड़ेगा। आज मोदी जी को आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है क्योंकि इस परिपाटी का श्रीगणेश भी तो उन्हीं की पार्टी ने किया था। वास्तविकता तो यह है कि रुपयों की कीमत का गिरना हमेशा नुकसानदेह नहीं होता। बेशक इसके कई नुकसान हैं जैसे आयात का महंगा होना और निर्यातकों का मुनाफा बढ़ना वगैरह। इस प्रक्रिया का अपना घाटा और मुनाफा है। सबसे बड़ी मुश्किल है कि मोदी सरकार की विदेश नीति और अर्थ नीति  की कोइ दिशा नजर नहीं आती। इसलिए कहना बड़ा कठिन है कि यह स्थिति मोदी सरकार के लिए एक चुनौती होगी या अवसर। यह तो सच है कि सरकार के पास प्रतिभा का भारी संकट है । हालांकि दुनिया की कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका कोई हल ना हो। हर चुनौती एक अवसर भी तो है। गड़बड़ी तब होती है जब हम चुनौती को समस्या की तरह देखने लगते हैं। अब देखना यह है कि मोदी जी इस चुनौती से कैसे निपटते हैं और मुश्किलों को मौको में  बदल सकते हैं अथवा नहीं।

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