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Thursday, September 20, 2018

राफेल सौदा और सियासी तिरंदाजी

राफेल सौदा और सियासी तिरंदाजी
भारत में यह सिलसिला तीन दशक पहले बोफोर्स की खरीद के समय से शुरू हुआ है। जब कभी सेना के आधुनिकीकरण के लिए हथियार का सौदा होता है तो राजनीति घुस आती है और शुरू हो जाती है तिरंदाजी। इसके पहले की सरकारों ने एक के बाद एक रक्षा सौदे रद्द किए थे। लेकिन कोई भी दोषी सामने नहीं आ सका।  इसके बावजूद कई कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर दिया गया। एक बार तो दुनिया के एक मशहूर उत्पादक की तोपों का सौदा 30 वर्ष तक झूलता  रहा था। यही हाल वायुसेना के साथ भी हुआ। हमलावर विमान का ठेका तय हुआ था। निविदाएं मंगाई गई थी। उन्हें 20 11 में खोला गया और जब राफेल सौदे पर भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षर हुआ तो 2016 आ गया।जब हस्ताक्षर हो गया तो सेना ने राहत की सांस ली। क्योंकि जहां भारतीय वायु सेना को 42 स्क्वाड्रन्स की जरूरत है तो उसके पास महज 31 स्क्वाड्रन्स हैं। 2019 में विमानों की आपूर्ति होनी थी लेकिन बीच में राजनीति शुरु हो गई । चारों तरफ से सियासी तीर चलने लगे और उस तीरंदाजी में सौदा गुम हो गया।
        यहां जो सबसे पहली चीज है और उसे समझना जरूरी है वह है कि राफेल सौदा कोई साधारण व्यापारिक सौदा नहीं है । यह दो सरकारों के बीच में हुआ है और चूंकि इस सौदे में दो सरकारें जुड़ी है तो यह पूर्णतः सुरक्षित है।  रिश्वत की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत जब अपने लिए लड़ाकू विमान तलाश रहा था तो राफेल के अलावा बोइंग एफ-18 सुपर हार नेट ,यूरो फाइटर टाइफून और स्वीडन की साब कंपनी के फाइटर भी दौड़ में थे। यही वजह है कि विपक्षी दल कीमतों को लेकर सवाल उठा रहे हैं। राफेल चौथी पीढ़ी का बेहतरीन विमान है। हां इससे सस्ते में रूसी मिग 29 या मिग 35 और सुखोई 35 विमान खरीदे जा सकते थे ।लेकिन, इन विकल्पों को आजमाया नहीं गया।
      राजनीतिज्ञों की तरफ से पहला आरोप कीमत को लेकर लगाया  गया।  कहा गया कि हम फ्रांस से सिर्फ विमान पा रहे हैं उसमें हथियार और अन्य साजोसामान नहीं हैं। भारत को इसके रखरखाव और मरम्मत के लिए सौदे  में ही तय कर लेना चाहिए था।  केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बयान दिया कि  2007 में जो सौदा तय हुआ था उसमें एक विमान का मूल्य 79.3 मिलियन यूरो था। बाद में मूल्य बढ़ा यह सौदे की शर्तों में शामिल था। 2011 में इसकी कीमत 100.85  मिलियन यूरो हो गई जबकि जब सौदा हुआ तो 91.75 मिलियन यूरो पर तय हुआ लगभग 9% की बचत हुई । इसके अलावा भारत को 13 और वस्तुएं चाहिए थी। जिसकी कीमत 9,855 करोड़ रुपए थी और यह स्थाई मूल्य था। यानी कुल सौदे के बाद भी यह इतना ही रहेगा। इसके अलावा भी कई और हथियार चाहिए थे जैसे हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइलें हैं, हवा से जमीन पर मार करने वाली मिसाइल हैं इत्यादि । यह मिसाइल सौदे का हिस्सा नहीं थी।  रखरखाव के लिए जो डील हुई थी उसके मुताबिक 5 साल तक 75% कीमत में पुर्जे दिए जाएंगे। पांच वर्ष तक इसके रखरखाव का जिम्मा भी उत्पादक कंपनी को ही दिया गया था। यह एक अच्छा सौदा था। यहां यह सोचना जरूरी है यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। देश की सुरक्षा का प्रश्न है। कांग्रेस इस पर इसलिए बवाल मचा रही है कि भाजपा ने अगस्ता वेस्टलैंड सौदे पर कांग्रेस को घेर रखा है।
       सौदे के विरुद्ध आरोप सही नहीं  हैं और आरोप में जो कीमतें बताई जा रहीं हैं वह बहुत ज्यादा बढ़ाकर बताई जा रही हैं।
जब बात जरूरत से ज्यादा बढ़ गई तो वायुसेना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने आरोप की मुखालफत करते हुए बयान जारी किया और इसके बाद सच्चाई बताने के लिए सेमिनार भी किए । यह एक स्वागत योग्य कदम था , क्योंकि राजनीतिज्ञों के आतंक से अबतक फौजी खुलकर सामने नहीं आते थे।
  आज हमारे राजनीतिक दलों में नई प्रवृत्ति देखी जा रही है। वह कि कोई भी मामला जो जनता का ध्यान आकर्षित करे  उसे ले कर सड़क पर उतर आते हैं । यह नहीं देखते कि इससे सैनिक तैयारी में कितनी कमी आ रही है। आशा है कि वर्तमान सरकार इन राजनीतिज्ञों की चाल में नहीं आएगी । क्योंकि, यह आधुनिक भारतीय राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बन गई है।

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