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Wednesday, September 19, 2018

देश की शासन प्रणाली में बदलाव जरूरी है?

देश की शासन प्रणाली में बदलाव जरूरी है?

पिछले दो दशक में क्षेत्रीय पार्टियां देश में जो कमाल दिखा रहीं हैं और केंद्र में उनकी जो भूमिका देखने को मिल रही है उससे ऐसा लगता है देश शासन प्रणाली में परिवर्तन के बारे में सोचना जरूरी है। यद्यपि 2014 के बाद क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व केंद्र में घटा  है, लेकिन 2019 के बाद फिर वही नजारा देखने को मिल सकता है। क्योंकि, इस बार फिर क्षेत्रीय पार्टियां उभार पर हैं और गठबंधन के लिए कोशिश में लगी हैं । केंद्र में भाजपा की सरकार है और काफी शक्तिशाली है लेकिन इसके बावजूद केंद्र और राज्य के संबंधों में बदलाव स्पष्ट देखने को मिल रहा है । भारतीय शासन व्यवस्था मजबूत केंद्र की धुरी पर टिकी है लेकिन फिलहाल जो हालात हैं उनमें केंद्र पर बढ़ता हुआ प्रभाव साफ दिख रहा है। प्रश्न है कि किन क्षेत्रों में केंद्र को मजबूत होना चाहिए, कहां समझौता होना चाहिए तथा कहां बदलाव आने चाहिए। तीन चीजें, जैसे रक्षा संचार और करेंसी इसमें तो इसी प्रकार का समझौता हो ही नहीं सकता। इसके अलावा संविधान में कुछ और भी चीजें हैं जिनके संदर्भ बदल चुके हैं और वह व्यर्थ हो चुके हैं।उन्हें हटा दिया जाना चाहिए या इन चीजों को राज्यों के सूची में डाल दिया चाहिए।
    राज्यों को आर्थिक मामलों में फैसले का अधिकार नहीं दिया गया है। जब संविधान बना था तो एक मामूली सा डर था राज्य स्वतंत्र होने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन अभी यह आशंका नहीं है। क्योंकि केंद्र के साथ बने रहने से जो आर्थिक लाभ मिलते हैं वह अलग होने पर नामुमकिन है। अब केंद्र से मिलने वाली मलाई कोई नहीं छोड़ना चाहता। ताजा स्थिति के मद्देनजर इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि केंद्र को कितना मजबूत होना चाहिए और आज मजबूत यानी पावरफुल होने का अर्थ क्या होता है? अर्थ की खोज के लिए कानूनी -आर्थिक विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों की समिति बननी चाहिए जो इस स्थिति की समीक्षा करे। इस समिति में पूर्व नौकरशाहों को नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि वह हर बदलाव को रोकने की कोशिश करते हैं।
     यह जो बात कही जा रही है इस तरह के विचार 1968 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने भी रखे थे । उसने कहा था कि भारत अमरीका की तरह कोई फेडरल स्टेट नहीं है बल्कि वह राज्यों का एक संघ है "इंडियन यूनियन"। देश आजाद हुआ  तो यह माना जाता  था कि राज्यों अधिक का आजादी देना खतरनाक है और उन्हें अनुशासित रखना केंद्र का काम है। इसी आशय का एक पत्र पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा था। जिसमें उन्होंने बताया था की शासन किस तरह से होना चाहिए।
      हालात बदल गए हैं जो कल छोटे वे बड़े हो गए। कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवगौड़ा और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। केंद्र में कुर्सी हासिल करने के लिए कई और मुख्यमंत्री दौड़ में हैं। इसका एक एक अर्थ यह भी है कि मुख्यमंत्रियों में परिपक्वता आ रही है और राज्य भी परिपक्व हो गए हैं। परिपक्वता की हकीकत संविधान में भी दिखनी चाहिए वरना केंद्र अप्रासंगिक हो जाएगा । 
   जीएसटी के साथ देश ने इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। राजनीतिक तौर पर भी देश शासन के सामान्य तौर तरीकों की तरफ लौटता दिख रहा है। आज का शासन एक खास किस्म की मनसबदारी है जो पैसे वाले विधायक को अहमियत देता है। संविधान इस ओर भी नहीं देख रहा है। हमारे देश का संविधान दुनिया का ऐसा अकेला संविधान है जिसमें प्रोसेस पर बहुत जोर दिया जाता है।कई बार प्रोसेस एवं पावर में कंफ्यूजन हो जाता है । जब संविधान बन रहा था तब ऐसा होना जरूरी था लेकिन अब इस तरह की कोई बात नहीं है और इसकी समीक्षा बहुत जरूरी है।

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