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Sunday, September 9, 2018

अगले लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व का पथ

6अगले लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व का पथ
2014 के  लोकसभा चुनाव के बाद भारत का सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। उस जनादेश को कई नजरिए से देखा जा सकता है । कुछ लोग इसे विकास के लिए हुआ मतदान मानते हैं, कुछ लोग भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए जनादेश मानते हैं, कुछ लोग सांप्रदायिक एजेंडा के लिए हुआ मतदान मानते हैं । यह निर्भर करता है कि उस जनादेश को किस चश्मे से देखा जा रहा है। लेकिन 2014 के उपचुनाव को हिंदुत्व की राजनीति का उभार भी कह सकते हैं ।  यह उभार 1990 के राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के पश्चात हुए हिंदुत्व के उभार की तरह नहीं था। हिंदुत्व का यह उभार बहुत गंभीर सामाजिक आर्थिक आलोड़न - मंथन के बाद हुआ और उसका प्रतिफल ठोस हिंदू पहचान में परिवर्तित हो गया। इसकी  प्रक्रिया 19वी शताब्दी से चालू थी लेकिन उत्तर औपनिवेशिक भारत में जब उद्योगीकरण और शहरीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई तो हिंदुत्व की पहचान की प्रक्रिया ने भी गति पकड़ ली। यद्यपि बहुत लोग यही कहते हैं हिंदुत्व आधुनिक राजनीतिक संरचना है पर संक्षेप में कहें तो  भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिमी उपनिवेशवाद और पुनरुत्थानशील इस्लामी साम्राज्यवाद को उद्योग और पूंजीवाद पर आधारित नई आर्थिक व्यवस्था के तहत हिंदुओं का यह जवाब था । यह अनेकता की विशिष्टता और विकेंद्रित प्रारूप पर निर्मित एक सभ्यता के मूल्य पर कई  विपरीत खंडों को एकबद्ध करने का प्रयास था। हिंदुत्व ने ऐसे एकजुट हिंदू राष्ट्र का सपना सजाया था जो क्षेत्रीय ,भाषाई और जातीय विद्वेष से ऊपर हो।  एक हिंदू राष्ट्र शहरीकरण और उद्योगीकरण  के बगैर नहीं निर्मित हो सकता। स्वतंत्रता के बाद आर्थिक परिवर्तन विशेषकर 1990 के बाद के आर्थिक सुधार ने इस प्रक्रिया को बल दिया। बाजार के अर्थ शास्त्र के  विकास और  उत्पादन के पूंजीवादी स्वरुप ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जन्म आधारित सामाजिक विभाजन को एक तरह से खत्म कर दिया तथा शहरीकरण ने विभिन्न जातियों और संप्रदायों को ना केवल निकट किया बल्कि उनकी विश्वदृष्टि और जीवन शैली को भी समीप कर दिया। यही कारण है कि शहरी क्षेत्र में हिंदू राजनीतिक चेतना को चुनौती दी जा रही है ,जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इसका वर्चस्व है। यही कारण है कि भाजपा शहरों में मजबूत है जबकि गांव में इसकी स्थिति इतनी अच्छी नहीं है।  चाहे जो भी दावा करें पर उन दावों के विपरीत अपेक्षाओं से भरे नौजवानों के साथ साथ  हिंदुत्व के विचार ने भी 2014 में अभूतपूर्व जनादेश दिया। यही नहीं 2019 के चुनाव में भी हिंदुत्व ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा । लोग कह रहे हैं कि इससे  भाजपा को ही ज्यादा लाभ मिलेगा, शायद ऐसा हो  लेकिन यह आसान नहीं है। क्योंकि विपक्षी दल ही एकमात्र उसके विरोधी नहीं है बल्कि जातीय  ताकतें भी हिंदू राजनीति के विरोध में काम कर रही हैं। कई जटिलताएं हैं जिससे हिंदुत्व को आघात पहुंच रहा है। जैसे हिंदुत्व शब्द ही उत्तर भारत के ऊंची जातीय   समूह का प्रतीक बन गया है और आम आदमी इससे विमुख होता जा रहा है। इसके लिए ऐसे पृथक  भाषाई बिंब और प्रतीक का अभाव है जो हिंदू शब्द के माध्यम से सभी जातियों को प्रतिबिंबित करे। जिससे सभी क्षेत्रों के सभी जाति के लोग इससे अपने को जोड़ा पाएं ।
      लोग इस बात पर हैरत करते हैं कि क्यों पृथ्वीराज चौहान हिंदुत्व का प्रतीक बन गए और राजा सुहेलदेव कि कहीं कोई गिनती नहीं रही। जबकि इनमे एक अपनी रणनीतिक ग़लतियों से पराजित हो गए दूसरे अपनी वीरता से विजयी हुए। क्यों नहीं पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के राजा और वीर हिंदुत्व के प्रतीकों में शामिल किए गए हैं ? क्यों नहीं दलित जातियों के संतो और उनके द्वारा किए गए धार्मिक सुधारों को हिंदुत्व की कथाओं में शामिल किया गया? यह सही है कि आज  हिंदुत्व के समर्थकों के लिए यह प्रतिकूल है किंतु उस समय इन्हें अगर प्रतीकों में शामिल कर लिया गया होता जरूर सामाजिक विभाजन का यह स्वरूप नहीं होता और ना ही क्षेत्रीय एवं जातीय विद्वेष होता। यह कोई असंभव काम नहीं है। लेकिन इसके लिए बहुत ही गंभीर  रणनीतिक प्रक्रिया अपनानी होगी ताकि हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों के लोग इसमें शामिल हो सकें। वरना, हिंदू एकता जितनी तेजी से बनी थी उतनी ही तेजी से समाप्त हो जाएगी । दूसरी बात है कि जो लोग खुद को हिंदुत्व का झंडाबरदार समझते हैं उन्हें पुराने दिनों के विचार त्यागने होंगे और उन्हें स्वदेशी वगैरह का नारा छोड़ना होगा । 2014 का जनादेश आधुनिकता की अपेक्षा की अभिव्यक्ति थी। वी एस नायपाल के अनुसार भारत लाखों क्रांतियों की धरती है जहां  नई  व्यवस्था जन्म लेने के लिए पुरानी व्यवस्था से  संघर्ष कर रही है और इतिहास की धारा के विरुद्ध  उठाया गया कोई भी कदम घातक होगा। भारत और हिंदू समाज बहुत तेजी से उस बिंदु पर पहुंचने वाला है जहां उसे पुरानी सभ्यता तथा पूर्व आधुनिक संस्कृति से अलग एक नया स्वरूप लेना है। इस प्रक्रिया की धारा को समझने के लिए थोड़ी मेहनत करनी होगी। हिंदुत्व को तेजी से बढ़ती हुई शहरी अर्थव्यवस्था और आधुनिकता की प्रक्रिया से खुद को जोड़ना होगा तब कहीं जाकर राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बन पाएगी। हिंदुत्व का राजनीतिक स्वरूप प्रतिक्रियाशील  एकता पर निर्भर है। 2014 के बाद से सत्तारूढ़ दल ने केवल शत्रुतात्मक रुख अपनाया इस कारण मुस्लिम और ईसाई समाज के नौजवान इसके विरोधी हो गए। सामूहिक भय के आधार पर निर्मित एकता बहुत भंगुर होती है । 2019 और उसके बाद के दिनों में हिंदुत्व को सभी जातियों और संप्रदायों के साथ सत्ता का बराबर बटवारा करना होगा। जातीय  और सांप्रदायिक विवादों को अगर नहीं सुलझाया गया तो हिंदुत्व बिखर जाएगा।

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