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Friday, October 5, 2018

2019 के चुनाव में भी विदेशी हाथ का खतरा

2019 के चुनाव में भी विदेशी हाथ का खतरा

70 के दशक में भारत में दो ही हाथ मशहूर थे। पहला था ,"कानून के लंबे हाथ" और दूसरा था "विदेशी हाथ ।" दोनों हाथ कभी दिखते नहीं थे। बड़े रहस्यमय थे। लेकिन यह माना जाता था कि  दोनों सक्रिय हैं। पहला चूँकि कानून के हाथ  थे इसलिए उन्हें आसानी से समझा जा सकता था, वे दिख भी जाते थे। जैसे किसी निर्दोष को पकड़ लिया तो ऐसे मौके पर कानून के हाथ दिखते थे। यह बात दूसरी थी कि न उस समय भी प्रभावी थे और आज हैं। इसलिए उसने अपने चारों तरफ अपना प्रभा मंडल बना रखा था।
        जहां तक विदेशी हाथ का सवाल है तो यह बड़ा अजीब है। बिल्कुल पहेलियों की तरह। आज तक कभी किसी ने देखा नहीं है ना कोई यह जानता है यह कैसे काम करता है, लेकिन  भरोसा सभी करते थे। वह शीत युद्ध का जमाना था। भारत का समाजवादियों से प्रेम चल रहा था। इंदिरा गांधी उस समय प्रधानमंत्री  थीं और उन्होंने कभी भी अपने सोवियत प्रेम को छिपाया नहीं। सीआईए उनका आतंक था । देश में कुछ भी गलत होता तो उसमें  उसी का हाथ होता था। सीआईए सब जगह मौजूद था। एक तरह से यह सार्वजनिक व्यंग का विषय हो गया था। निक्सन इंदिरा जी को पसंद नहीं करते थे यह सब कोई जानता था। 1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश की आजादी कोई काल्पनिक नहीं थी। इंदिरा जी ने इमरजेंसी लगाई थी उसके बारे में कुछ लोग तो यह  भी कहते थे अमरीका ने इमरजेंसी हटाने के लिए इंदिरा जी पर दबाव डाला था। इंदिरा जी के जीवनीकारों से अज्ञात हाथों से उनकी मौत का उनके भीतर व्याप्त भय छिपा नहीं था। वैसे विदेशी हाथ का यह डर असुरक्षित राजनीतिज्ञों की कल्पना नहीं थी। ना ही कोई काम गलत हो जाने पर एक बहाना था 'रॉ ' के पूर्व अध्यक्ष विक्रम सूद ने अपनी पुस्तक का "दी अनएंडिंग गेम" में लिखा है  की "शीत युद्ध के जमाने में भारत विदेशी खुफिया एजेंसियों के खेल का मैदान था ।"हाल में विदेशी सरकारों द्वारा वर्गीकृत किए गए दस्तावेजों से भी यह प्रमाणित होता है। सी आई ए और के जी बी ने भारतीय संस्थाओं में गहरी पहुंच बना ली थी। कई राजनीतिज्ञ, अफसर ,राजनयिक, पुलिस और खुफिया अधिकारी उनसे वेतन पाते थे। राजनीतिक दलों को अमरीका और रूस चुनाव में धन देते थे।
       यही नहीं एक मनोवैज्ञानिक युद्ध भी चलता था। केजीबी का दावा था की भारत के 10 अखबार और समाचार एजेंसियां उनके वेतन पर चलती थीं। उनके माध्यम से वे प्रॉपगंडा करते थे। विक्रम सूद ने लिखा है कि मास्को ने शीत युद्ध जमाने में भारत के अखबारों में 1 लाख साठ हजार खबरें प्रकाशित करवाई थीं। यही नहीं 1972 से 75 के बीच के जी बी ने कथित रूप से भारतीय मीडिया में सत्रह हजार खबरें प्रकाशित करवाई थीं।
       अब इसे आज के संदर्भ में देखिए यह तो भरोसा ही नहीं किया जा सकता है कि विदेशी हाथ को भारत  में अभी दिलचस्पी नहीं है।  कुछ नहीं तो वैश्विक जियोपोलिटिक्स में भारत का महत्व कई गुना बढ़ गया है ।भारत का प्रभाव अपने निकटतम पड़ोसी से आगे तक चला गया है । भारतीय  सेना और कूटनीति की क्षमता बढ़ी है। भारत गैर कम्युनिस्ट धुरी का आज एक महत्वपूर्ण सदस्य है और आतंकवाद के खिलाफ ग्लोबल युद्ध का महत्वपूर्ण दावेदार भी है । अब अगर इस सारी स्थितियों को ध्यान से देखें तो ऐसा लगेगा कि हम "शीत युद्ध" से "शीततर युद्ध" के युग में प्रवेश कर गए हैं। खासकर चीन और रूस के ताकतवर हो जाने के बाद अब परंपरागत हथियार की जगह साइबर शस्त्र का प्रयोग हो रहा है। डाटा और सोशल मीडिया इन दिनों महाविनाश के शस्त्र बन गए हैं । एक मुल्क और एक आबादी के तौर पर हम समझते हैं कि जियो पॉलिटिक्स मजबूरियां क्या हैं। इसके लिए पड़ोसी के राजनीतिक मामलों में गुप्त हस्तक्षेप अपेक्षित है। हम विदेशी हाथ की इसलिए आलोचना करते हैं कि अपेक्षित लाभ या उत्प्रेरण पहले नहीं हासिल कर सकते । पाकिस्तान को अपने घरेलू मामलों में भारत का हस्तक्षेप  उसकी पुरानी शिकायत है। एशिया के और देश भी भारत के हाथ से ऊबे हुए लगते हैं। अब चीन का भी खतरा बढ़ रहा है और इससे भारत और चीन एक नए क्षेत्रीय शीत युद्ध में कूद चुके हैं। यही नहीं जब पाकिस्तान ,अफगानिस्तान और ईरान का मसला होता है तो सीआईए कोई गोपनीय शब्द नहीं रह जाता है। ब्रेक्जिट और अमरीकी चुनाव में रूस की भूमिका किसी से छिपी नहीं है और यह गंभीर बहस का विषय है।
        जब हमारी बात आती है यानी अपने देश की बात आती है तो हम एक तरह से उन कबूतरों की तरह हो जाते हैं जो आंखें बंद कर लेते हैं और समझते हैं खतरा टल गया। जो इस पर सवाल उठाते हैं उन पर आरोप लगाते हैं कहते हैं कि वह अपनी पराजय को छुपा रहा है। यह दशकों से चला आ रहा है।
         अब जरा रूसी हैकरों के काम करने का ढंग देखें। पता चलेगा कि हम अभी कितने कमजोर हैं । हमारे सिस्टम बेहद असुरक्षित हैं।   सोशल मीडिया का बहुत बड़ा वर्ग असंतोष जाहिर करने में लगा हुआ है यह सब 2016 से चल रहा है । जब से डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव लड़ा है। एक तरह से सूचना युद्ध है। इसमें करोड़ों डालर लगे हैं और इससे सैकड़ों लोग जुड़े हैं । यही नहीं 2014 में "ट्रॉल फार्म" ने अविश्वास पैदा करने के लिए रणनीति तैयार की थी । मोटे तौर पर यह राजनीतिक पद्धति उम्मीदवारों के खिलाफ है। इससे जुड़े लोग  झूठे बैंक खाते और परिचय के गलत दस्तावेज का उपयोग करते हैं। यह लोग फेसबुक, ट्विटर ,इंस्टाग्राम और यू  ट्यूब का उपयोग करते हैं तथा गलत सूचनाएं प्रसारित करते हैं। इन्होंने कथित रूप से पार्टियों के सर्वर और ईमेल हैक कर लिया और उनका उपयोग कर फाइलों को चुरा लिया तथा बाद में इसे प्रकाशित किया।
      अपना देश भी इससे सुरक्षित नहीं है। मामूली उदाहरण है काला धन। जब इसकी बात आती है तो हम खुद ब खुद सोचने लगते हैं कि सब मिले हुए हैं। यही बात विदेशी धन के भी मामले में होता है। राजनीतिक दलों के पास सदा से कुछ ऐसे विदेशी लोग रहे हैं जो उन्हें लाभ पहुंचाते रहे हैं। इसलिए वे दल दूसरों पर उंगली नहीं उठा सकते। मीडिया का कुछ हिस्सा भी इनसे जुड़ा हुआ है इसलिए वह कोई असुविधाजनक प्रश्न नहीं खड़े करता है। इसलिए वे विदेशी हाथ भारतीय चुनाव में भी सक्रिय हो जाएं इसमें क्या आश्चर्य है ।आखरी यह भी तो चुनाव है।

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