हकीकत से ज्यादा अवधारणाएं कारगर होती हैं
वो कहते हैं न कि सच्चाई से ज्यादा इंसान के दिमाग में अवधारणाएं असरदार होती हैं।वह अवधारणा ही थी कि भगवान राम को सोने के मृग के होने पर भरोसा हो गया और वे उसे मारने के लिए निकल पड़े। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है कि शासन के मामले में अवधारणाएं ज्यादा मायने रखती हैं और अगर उन्हें समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो ज्यादा खतरनाक तथा घातक भगी हो जाती हैं। शेक्सपीयर का कहना था कि " सियासत की एक लहर उठती है और वह सियासी सौभाग्य में बदल सकती है।" आज पूरे नहीं हो सके वायदों और राफेल सौदे की रस्साकशी से उपजी निराशाओं के लहराते सागर में मोदी सरकार तैर रही है।
राफेल सौदों के आरोपों का उद्देश्य या उसकी वास्तविकता चाहे जो हैओ परंतु फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने राहुल गांधी को नई जीवनी शक्ति दे दी ताकि वे भाजपा शासित प्रान्त राजस्थान,. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मोर्चा खोल सकें । लोगों में इस सौदे को लेकर मोदी जी विरुद्ध अवधारणा पैदा हो सके इसके पहले भाजपा को कुछ करना होगा। राहुल गांधी पिछले साल से ही राजनीतिक भूचाल लाने की तैयारी में थे और यह मसला तेजी से उभर रहा है। इससे बन रही अवधारणा की आग को अगर नहीं बुझाया गया तो यह घातक बारूद में बदल सकता है। राहुल गांधी के लिए तो ओलांद का यह धमाका बोफोर्स से जुड़े आरोपों , रॉबर्ट वाड्रा के भूमि घोटाले और नेशनल हेराल्ड मामले इत्यादि के मुकाबले एक दैवी मदद के रूप में आया है। संयुक्त संसदीय समिति की जांच की मांग से राहुल गांधी के चुनाव अभियान को पर लग गए हैं। इधर मोदी सरकार ने 2014 के बाद शासन में पारदर्शिता के बड़े-बड़े वायदे करती रही है और इस आरोप ने उसके इस वायदे की हवा निकाल दी। यही नहीं इसने राफेल बनाने वाली कंपनी डसॉल्ट को भी शर्मसार कर दिया कि वह मोदी सरकार के कहने के अनुसार उसने अम्बानी की कंपनी को लाभ में हिस्सा दिया है। यही नहीं, कांग्रेस ने यह भी आरोप लगाया है कि जहां सरकारी कंपनी डी आर डी ओ 9000 हज़ार करोड़ का ठेका दिया गया है वहीं टाटा और 32 अन्य निजी कंपनियों को 21 हज़ार करोड़ के ठेके दिए गए हैं। यह सब मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ है। इसकी टाइमिंग ने कांग्रेस को बड़ा मौका दे दिया है।
लेकिन , इतिहास गवाह है कि भारतीय मतदाताओं ने हमेशा नेताओं को वोट दिया है पार्टियों को नहीं।यदि यह सही है तो अभी भी 2019 के लिए मोदी ही नायक हैं बेशक जमीनी हक़ीक़त चाहे जो हो। आम आदमी अर्थशास्त्रीय नियमों पर ध्यान नहीं देता वह केवल यह देखता है कि क्रय शक्ति क्यों काम हो गई? मोदी सरकार का संकट यहीं खत्म नहीं होता निजी और सरकारी बैंको के कामकाज में भरोसे का अभाव साफ दिखता है हालांकि यह यू पी ए -2 सरकार के काल की विरासत है यह सब उजागर तो मोदी के काल में हो रहा है और आम वोटर बारीकियों में ना जाकर केवल यही देखता है कि क्या हो रहा है। ऐसे में जो मोदी सरकार ने अच्छा काम भी किया उसपर नकारात्मक खबरों का ग्रहण लग गया है और सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है । नोटबन्दी के बाद छोटे-छोटे निवेशकों ने म्यूच्यूअल फंड इत्यादि जो पूंजी लगायी थी उनमें भी अविश्वास पैदा हो रहा है और मोदी सरकार उनके भय को कम करने में सफल नहीं हो पा रही है। 2019 के चुनाव में रुपये का गिरना और कीमतों का बढ़ना मोदी सरकार के लिए राफेल से ज्यादा संकट पैदा कर सकता है। चुनाव पूर्व की स्थितियों में उम्मीद से ज्यादा भय और अविश्वास है । भरोसा ही मोदी का हथियार था जिसके बल पर उन्होंने चुनाव जीता था। चुनाव पूर्व हालात बिगड़ रहें हैं , मोदी कैद मुकाबले सभी खड़े हैं और इसे ठीक करने के लिए मोदी सरकार के हाथ में समय कम है।
Tuesday, October 2, 2018
हकीकत से ज्यादा अवधारणाएं कारगर होती हैं
Posted by pandeyhariram at 8:31 PM
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