आखिर यह जिद क्यों ?
पिछले तीन-चार महीनों से भाजपा अपने ही किए में फंसती जा रही है । एक तरफ आर एस एस प्रमुख मंदिर को लेकर बयान बाजी कर रहे हैं दूसरी तरफ उसके अपने नेता भी तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है की 2019 के चुनाव में क्या होगा? बीजेपी नर्वस दिखाई पड़ रही है। 2014 में जो आत्मविश्वास दिखता था वह अभी कम होता सा दिख रहा है। सितंबर से पार्टी की हालत अजीब होती जा रही है। लगता है वह भीतर भीतर नर्वस हो गई है। शुरू में कुछ पुराने नेता विद्रोह पर उतरे थे उनका कोई राजनीतिक मतलब नहीं था। लेकिन अब घटनाएं नया रूप ले रही हैं। एक तरफ एम जे अकबर का इस्तीफा , दूसरी तरफ नितिन गडकरी के असाधारण बयान । उस बयान में गडकरी ने यह कहा था कि "हम जानते थे सत्ता में नहीं आ सकते बड़े-बड़े वादे किए।" अब जब वादे नहीं पूरे हो पा रहे हैं और लोग उस की याद दिलाते हैं तो वे उसे हंसी में टाल देते हैं । कुछ दिन पहले 15 लाख रुपए वाले बयान को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने जुमला कहा था। पिछले साल संघ प्रमुख ने कहा था कि "संघ कांग्रेस मुक्त भारत नहीं चाहता।" यह संघ की भाषा नहीं थी यह एक राजनीतिक जुमला था। यहां तक कि खुद को मोदी का समर्थक बताने वाले सुब्रमण्यम स्वामी भी कई बार मोदी पर परोक्ष हमले करते नजर आ रहे है । ग्रासरूट स्तर के पार्टी कार्यकर्ता स्थानीय नेताओं से असंतुष्ट दिखाई पड़ रहे हैं। इस तरह की लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है। इसमें विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल को भी शामिल किया जा सकता है।
नर्वसनेस का आलम यह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत बहुत ही जोर-शोर से मंदिर का मुद्दा उठा रहे हैं। उनका कहना है कि राजनीति के चलते मंदिर का निर्माण नहीं हो रहा है। सरकार को इसके लिए कानून बनाना चाहिए। अगर कोई आम कार्यकर्ता यह बात कहता तो शायद इतनी अहमियत नहीं होती लेकिन संघ प्रमुख चुनाव के पहले यह बात उठा रहे हैं! केंद्र में 2014 से भाजपा की सरकार है। 2018 का अंत होने वाला है और अब तक मंदिर की बात नहीं उठी। उस समय तो नारा चल रहा था "सबका साथ सबका विकास।" अचानक कोने में पड़े राम मंदिर का मसला सामने खड़ा कर दिया गया। कारण क्या है? संघ प्रमुख कह रहे हैं, राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनाया जाए। जरूर यह बात किसी रणनीति का हिस्सा होगी। किसी लक्ष्य की ओर संधान होगा।
भक्तों को छोड़ दीजिए, आम आदमी यह कह रहा है कि मोदी जी कुछ नहीं कर पाए। जितना कहा था वह पूरा नहीं हुआ। महंगाई बढ़ती जा रही है। रुपया कमजोर हो रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। दलित सड़कों पर उतर आए हैं ।मुस्लिम खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं ।मझोले स्तर के व्यापारी हाय हाय कर रहे हैं । इससे स्पष्ट है कि मोदी सरकार अब काम और वायदों को लेकर चुनाव मैदान में नहीं उतर सकती । इसलिए वह भावनात्मक मसलों की तलाश में है। एक समय था जब लोग मोदी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे। बात-बात में झगड़े पर उतर आते थे। अब हवा बदल रही है। जब शुरू में मोदी सरकार बनी थी तो हर बात में कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराती थी। अब जबकि 4 साल बीत गए तो जनता पूछ रही है आपने अब तक क्या किया? इसी कारण राम मंदिर का भावात्मक मुद्दा उठाया जा रहा है। क्योंकि मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की जा रही है। उम्मीद है कि अदालत दिसंबर तक कोई न कोई फैसला दे दे। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की रणनीति हो। भागवत मंदिर बनाने के लिए कानून बनाने की बात कर रहे हैं यह भारतीय संविधान की व्यवस्था का स्पष्ट उल्लंघन है। जब मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो सरकार कानून कैसे बना सकती है ? इसका साफ मतलब है कि संघ को कोर्ट पर भरोसा नहीं है। इसके पहले राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की थी और देश ने लंबे समय तक सजा भुगती। फिर वही गलती! आखिर क्यों ? संघ प्रमुख की ज़िद है। राम मंदिर बनाने के बारे में उनका कहना है कि इसके बनने से देश में सद्भावना और एकात्मता का वातावरण बनेगा । लेकिन संघ प्रमुख का यह बयान इतना आक्रामक है कि यह चेतावनी सा दिखता है । संघ तो उस समय भी इतना आक्रामक नहीं दिखता था जब बाबरी ढांचे को गिराया गया था । संघ प्रमुख इसे भारत की इच्छा ,भारत का प्रतीक और भारत का गौरव बता रहे हैं। देश का गौरव न मंदिर बनाने से जुड़ा है ना बाबरी विध्वंस से और न लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना से। देश का गौरव इन के सम्मान से जुड़ा है। यहां एक अहम सवाल है कि अब फिर क्या वही होगा जो 26 साल पहले हुआ था । फिर चुनाव जीतने के लिए अगर यह होगा टनक्या देश इसे चुपचाप देखता रहेगा?
ये जब्र भी देखा है तारीख की निगाहों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई
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