पहली बार ऐसा नहीं हुआ
23 अक्टूबर को एक दिलचस्प ट्वीट आया कि देश की तथाकथित प्रमुख जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), ने अपने मुख्यालय में जांच की और एक जांच अधिकारी को रिश्वतखोरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई की विशेष जांच दल (एसआईटी) के जांच अधिकारी, हैदराबाद स्थित मांस निर्यातक मोइन कुरेशी के खिलाफ "मनी लॉंडरिंग " आरोपों की जांच करने वाले सीबीआई के अधिकारियों ने जांच अधिकारी देवेंद्र कुमार को गिरफ्तार कर लिया।
इस घटना ने एजेंसी के दो शीर्ष अधिकारियों - सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच एक उग्र रस्साकशी पर से पर्दा हटा दिया। दोनों अफसरों ने एक-दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाये हैं। लेकिन सीबीआई में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि का वह अपने शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ जांच की हो।
2017 में एजेंसी ने अपने पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ कोयला ब्लॉक आवंटन मामलों में पूछताछ, जांच और मुकदमा चलाने के अपने अधिकार का दुरुपयोग करने के आरोपों पर भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था।
2017 में ही सीबीआई ने अपने पूर्व निदेशक, एपी सिंह और उनके कथित बचपन के दोस्त मोइन कुरेशी के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया था। उनपर भी मोइन कुरेशी से रिश्वत लेने का आरोप था। महत्वपूर्ण जांच के दौरान एजेंसी खुद के रिकॉर्ड और परिसर की खोज के बिना जांच कार्य कैसे पूरा कर सकती है।
हालांकि, हर मामले में कम प्रगति हुई है। इस साल जनवरी में, सीबीआई के एसआईटी ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सिन्हा के खिलाफ जांच में पर्याप्त प्रगति हुई है। सिन्हा ने स्पष्ट रूप से कोयला घोटाले के मामलों में जांच को खत्म करने की कोशिश की थी।
देश को यह नहीं मालूम हो सका नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वालों ने आर्थिक लाभ के लिए अपने पदों का दुरुपयोग कैसे किया।
वर्तमान गड़बड़ इसीलिए न आश्चर्यजनक है, ना ही चौंकाने वाला। यदि कुछ भी हो यह दिलचस्प तथ्य है कि अपराध और भ्रष्टाचार के महत्वपूर्ण मामलों की जांच करने वाली एजेंसी भ्रष्टाचार पर लगे कलंक को अपने पर से कैसे मिटाती है। देश यह जानना चाहता है। अक्टूबर 2017 में, सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) में राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए एक गोपनीय पत्र भेजा था और अनुरोध किया था कि उन्हें विशेष निदेशक पद पर पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए। स्टर्लिंग बायोटेक मामले में अस्थाना पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था । उनपर आरोप था कि कंपनी के दफ्तर में पाई गई एक डायरी के मुताबिक, अस्थाना को 3.88 करोड़ रुपये का रिश्वत मिला था ।
दो शीर्ष सीबीआई अधिकारियों के बीच के बीच जोर आजमाइश जारी है। अस्थाना ने वर्मा के पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। अस्थाना पर आरोप लगाया गया है कि वर्मा लालू यादव के खिलाफ लंबित मामलों में नरम हो गए थे और उन्होंने कथित तौर पर व्यवसायी सतीश साना के खिलाफ मामले में 2 करोड़ रुपये की रिश्वत ली थी। यह तमाशा सीबीआई कार्यालय से सीधे चलाया जा रहा है जो सार्वजनिक धन पर चल रहा है।
सीबीआई हमेशा मौजूदा सरकार के तहत काम करने के लिए बदनाम है। सुप्रीम कोर्ट ने तो एक बार उसे पिंजरे का तोता कहा था। राजनीतिक खुंदक निकालने के लिए प्रतिद्वंद्वियों की बोलती बंद करने के लिए, इसे एक औज़ार के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। एजेंसी को देश की अदालतों द्वारा कई बार कमजोर और मंद कहा गया है। लेकिन यह एक अलग विषय है। जिस बिंदु पर अभी अध्ययन की जरूरत है। वर्मा-अस्थाना गाथा पर से जिस तरह से पर्दा हट न चुका है, उससे यह स्पष्ट है कि इसके ओवरहाल और इसके कामकाज में बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।जबकि ज्यादातर सरकारी विभाग अपने अधिकारियों के खिलाफ आंतरिक स्तर पर प्रारंभिक जांच करते हैं, सीबीआई के साथ समस्या यह है कि उसने जनता से वाहवाही लेने के लिए बहुत ही खराब ट्रैक रिकॉर्ड प्रस्तुत किया है।
एपी सिंह से रणजीत सिन्हा तक, राकेश अस्थाना से आलोक वर्मा तक, सभी अधिकारी जांच कर रहे मामलों में रिश्वत लेने का आरोप लगाते हैं। ऐसे वरिष्ठ अधिकारियों पर लगे ये मामले सिर्फ भ्रष्टाचार के व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं बल्कि उन्होंने संस्थान के भ्रष्टाचार का आकार लिया है। यदि आप जाहिर तौर पर भारत की शीर्ष एजेंसी से जांच को कम करने के लिए भुगतान कर सकते हैं, तो भ्रष्टाचार को खत्म करने में देश की संभावना क्या है?
सीबीआई को इस घटना को सीधे अपने मुख्यालय से सार्वजनिक रूप से प्रसारित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
केवल सुप्रीम कोर्ट-निगरानी की जांच ही लोगों में विश्वास पैदा करने में मदद कर सकती है और इसीसे सीबीआई को संस्था के रूप में बचाया जा सकता है।
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