विपक्ष का एकजुट होना जरूरी
बड़ा अजीब वाकया है। हम में से बहुतों को 70 का दशक याद होगा। इस दशक के पहले कुछ साल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए बेहतरीन थे। लोकसभा चुनाव में भारी विजय मिली थी ,बांग्लादेश युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को धूल चटा दी थी और गरीबी हटाओ का नारा जन जन के बीच गूंज रहा था।पोखरण परमाणु परीक्षण ने उनके कद को और बढ़ा दिया था । " इंदिरा इज इंडिया" का जुमला चल निकला था। इंदिरा जी के उस प्रभाव को निस्तेज करने के लिए जयप्रकाश नारायण ने सभी दलों को एकजुट कर दिया और विपक्षी एकता ने इंदिरा जी को पराजित कर दिया ।
कुछ ऐसी ही स्थितियों में 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने । एक नया नारा था "हर-हर मोदी ,घर घर मोदी।" इस नारे ने मोदी का कद इतना बढ़ा दिया कि भारत के सारे राजनीतिज्ञ उनके आगे बौने हो गए थे। अब फिर विपक्षी एकता की हवा बह रही है। लेकिन, अभी कुछ तय नहीं हो पा रहा है। पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा को लेकर चुनाव आयोग ने जो व्यवहार किया उससे ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने अस्तित्व के अत्यंत चिंताजनक दौर में पहुंच गयीं हैं। विपक्षी एकता की संभावना डांवाडोल है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के आचरण से ऐसा लगता है कि वह कांग्रेस से तालमेल कर चुनाव लड़ने के मूड में नहीं है। राजस्थान से तीसरे मोर्चे की खबर आ रही है और छत्तीसगढ़ में बसपा ने अजीत जोगी से हाथ मिला लिया है। इन 3 राज्यों में जो राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं उसका असर व्यापक हो सकता है।
जब गठबंधन की बात चल रही थी तो बताते हैं की हर पार्टी ने अपने लिए ज्यादा सीटों की मांग की । आम हालात में यह स्वाभाविक भी है। इसमें सवाल उठता है कि आज जो हालात हैं वह क्या आम हैं और दूसरा यह चुनाव इतना महत्वपूर्ण है एक सरकार आएगी और एक जाएगी। मीडिया को छोड़ें, इन साढे 4 वर्षों में जो घटनाक्रम चल रहा है वह कई सवाल के उत्तर खुद दे देगा। ऊपर "इंदिरा इज इंडिया" की बात हुई थी। ठीक उसी तरह आज सरकार बीजेपी की नहीं एमजेपी की है यानी मोदी जनता पार्टी की। यह सरकार नीतिगत और अन्य फैसले तत्कालीन राजनीतिक लाभ को देख कर और कहें तो अपनी सनक के आधार पर लेती है। इसके नतीजे भयानक हो रहे हैं। नोट बंदी का ही उदाहरण लें। जिन अर्थशास्त्रियों ने इस पर उंगली उठाई उनके खिलाफ "हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क" का नारा ठोक दिया गया। आज पूंजीपतियों को छोड़कर समाज का हर वर्ग आर्थिक रूप से परेशान है। नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकों के धंधे किसी से छिपे नहीं हैं। राफेल सौदा भ्रष्टाचार विरोध के नारे की किरकिरी कर रहा है।
बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और सरकार उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं कर रही है। बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्या को पकौड़े तलने से हल करने की बात की जाती है। डॉलर के मुकाबले रुपया गिरता जा रहा है और उसे संभालने के बजाय नारे और जुमलों से काम चलाया जा रहा है। राफेल सौदा पर उठाए गए प्रश्नों का जवाब नहीं मिल रहा है उल्टे हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को नकारा साबित किया जा रहा है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी का एक तरफ मजाक उड़ाया जाता है और दूसरी तरफ कहा जाता है कि राहुल ने ही फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति से मनमाफिक बयान दिलवा दिया है । समाज टूट रहा है गुजरात से बिहारी भाग रहे हैं । कारखाने बंद हो रहे हैं। गरीबों पर और अल्पसंख्यकों पर जुल्म बढ़ते जा रहे हैं । गो रक्षा के नाम पर खुलेआम पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है और हत्यारों का कुछ नहीं होता। पड़ोसी देशों में भारत विरोधी भावनाएं पनप रहीं हैं। नेपाल चीन की ओर खिसक रहा है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर तनाव फैल रहा है और दूसरी तरफ सरकार आश्वासन भी दे रही है कि उन्हें वापस नहीं भेजा जाएगा।
जरा राजनीतिक हालात पर गौर करें। आखिर क्या बात है कि राफेल सौदे पर केवल कांग्रेस बोल रही है बाकी सभी विपक्षी दल चुप हैं। कहीं ऐसा तो नहीं ये लोग चुनाव के बाद भाजपा से तालमेल के रास्ते खुले रखना चाहते हैं। मायावती जी तो पहले भी भाजपा के साथ रह चुकी हैं।
अभी जो कांग्रेस की स्थिति है देख कर लगता है कि उसमें आत्मविश्वास बढ़ा है। राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से संबंध भी अच्छे बना रहे हैं। एक तरह से कांग्रेस अभी पुनर्जीवन प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रही है। भाजपा भी इसे समझ रही है। यही कारण है कि सरसंघचालक ने "कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा त्याग दिया है। आज हालात वही हैं जो 70 के दशक में इंदिरा जी के जमाने में थे और उसका जवाब था विपक्षी एकता। आज भी भाजपा विरोधी दलों एकता जरूरी है या कहें अनिवार्य है । वर्ना देश के सामने और भी संकट आ सकते हैं।
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