जिस देश का बचपन भूखा है
एक सच हमारे देश में सर्वमान्य है, कम से कम देश का एक हिस्सा तो मानता ही है कि जो लोग इस सरकार की आलोचना करते हैं वह राष्ट्र विरोधी हैं और उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए। लेकिन, तब क्या हो जब आलोचनाएं किसी ऐसी संस्था की ओर से आती हों जिसे दुनिया मानती है, और आलोचनाएं भी हकीकत तथा आंकड़ों पर आधारित हों और सीधे सरकार पर आरोप हो कि सरकार अपने बुनियादी कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रही है। वह देश के बच्चे भरपेट खाना ,इलाज और शिक्षा नहीं मुहैया करा पा रही है।
हमारी सरकार इस बारे में दो बातें कहती है। पहली कि जिस संस्थान ने यह आरोप लगाया है ,उसकी गणना का तरीका गलत है या फिर वह किसी एजेंडे के तहत ऐसा कर रहा है । पिछले हफ्ते सरकार ने विश्व बैंक के मानव संसाधन सूची (एच सी आई) रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इस रिपोर्ट में भारत की रैंक 157 देशों में 115 वीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पैदा हुए बच्चे अपनी कुल क्षमता का 44% ही उत्पादित कर सकते हैं। क्योंकि, जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं उनकी शिक्षा और उनके स्वास्थ्य में गिरावट आती जाती है। यह भारत की अब तक सरकारों की बहुत बड़ी असफलता है। इस देश का भविष्य मानव संसाधन के मामले में धीरे धीरे अंधकारमय होता जा रहा है। एक बात साफ है कि हमारे बच्चों के साथ बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है। यह बच्चे केवल इसलिए अपनी पूरी क्षमता नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि वह इस देश की दोषपूर्ण व्यवस्था के शिकार हो रहे हैं।
सरकार को चाहिए रिपोर्ट के आधार पर इस बात की जांच करें कि हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा और पोषण तंत्र में कहां गड़बड़ी है और उसे सुधार कर प्रभावशाली बनाने का प्रयास करना चाहिए। उल्टे हमारी सरकार ने इसे नजरअंदाज करने का निर्णय कर लिया। कारण है कि सरकार में व्यापक प्रणालीगत कमजोरियां है और कई आंकड़े उपलब्ध नहीं है। कोई भी सर्वे ऐसा नहीं होता जो दोषपूर्ण ना हो सरकार का यह कहना सही हो सकता है कि विश्व बैंक का निष्कर्ष प्राप्त करने का तरीका दोषपूर्ण है। लेकिन विश्व बैंक की रिपोर्ट ही तो केवल नहीं है। पिछले हफ्ते ही वैश्विक क्षुधा सूची और और असमानता घटाने के प्रति प्रतिबद्धता सूची भी जारी हुई थी। क्षुधा सूची में 119 देशों में भारत का स्थान 103 था और गैर बराबरी सूची में 157 देशों में भारत का स्थान 147 था। यह सारे सर्वेक्षण अलग अलग संस्थानों द्वारा किए गए थे। विश्व बैंक ने एच सी आई रिपोर्ट जारी की थी जबकि क्षुधा सूची एक अन्य संस्था वेल्थ हंगर हाईलाइफ़ ने जारी की थी और और समानता सूची ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने तैयार की थी। क्या इन सभी संस्थाओं ने भारत को बदनाम करने का एजेंडा बना लिया है। या, सभी संस्थाओं की गणनाओं का तरीका गलत है, जैसा कि सरकार ने एचसीआई की रिपोर्ट को गलत ठहराने के लिए कहा है। यही सरकार उस समय बहुत खुश हुई थी जब विश्व बैंक ने कहा था कि भारत व्यापार करने की सुविधाओं की स्थिति बहुत सुधरी है। भारत का स्थान 130 से 100 हो गया है। विडंबना यह है जिस रिपोर्ट पर सरकार अपना सीना ठोक रही है वह रिपोर्ट सरकार कि इस बात का समर्थन करती है की इसे तैयार करने का तरीका गलत है । क्योंकि विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने कहा था कि रिपोर्ट में चिली की स्थिति जान बूझकर गड़बड़ कर दी गई है और इस कथन के बाद पॉल रोमर को इस्तीफा देना पड़ गया था। क्या सभी संस्थाएं जो भारत सरकार की आलोचना करती हैं वह इसकी दुश्मन है? लांसेट ने 2015 में मोदी जी के हेल्थ केयर रिकॉर्ड आलोचना की थी तो उसे बहुत भला बुरा कहा गया था और जब 2018 में उसने उसका उल्टा बताया तो उसकी वाहवाही हो गई। पिछले हफ्ते अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जब कहा कि इस साल का 7.3 प्रतिशत का विकास दर अगले साल बढ़कर 7.4% हो जाएगा तो सरकार खुशी से उछल पड़ी। अब जब तीन संस्थाएं सरकार के विरोध में रिपोर्ट देती हैं तो गलत हो गई । उन रिपोर्टों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है लेकिन उसका लाभ कमजोर और वंचित लोगों तक नहीं पहुंच रहा है।
यह कोई मसला नहीं है कि यह सर्वे एकदम सही है या नहीं।सरकार ने कई गलत कदम उठाए जैसे बच्चों को दोपहर के भोजन में कई पोषण पदार्थों को बंद कर दिया गया। आधार में गड़बड़ी के कारण खाद्य सुरक्षा नियम में गड़बड़ी हो गई । वैसे कोई भी सही ढंग से सोचने वाला व्यक्ति मोदी जी को इसके लिए अकेले दोषी नहीं बता सकता । दशकों से यही स्थिति चली आ रही है और पिछली सरकारें भी इसके लिए दोषी हैं । लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह समस्याएं हमारे देश में कायम हैं। सरकार बेवजह विश्व बैंक की रिपोर्ट को खारिज कर रही है। जब रिपोर्ट कहती है कि देश के बच्चे अपनी क्षमता का 44% ही उत्पादन कर सकते हैं तो सोचने वाली बात यह है कि हमारे बच्चे रात में भूखा सो जा रहे हैं और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा के कारण मर रहे हैं। यह बुरा मानने वाली बात नहीं है।
हमारे पास अपने आंकड़े भी हैं। वह भी कोई अच्छी बात नहीं कह रहे हैं। मसलन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015- 16 के मुताबिक भारत के 5 साल से कम उम्र के 8.4% बच्चे अविकसित हैं, 21% बच्चे अपनी ऊंचाई के अनुपात में कम वजन के हैं और 35.7% बच्चों का वजन कम है। इसके पहले 2005 -06 में भी यह सर्वे किया गया था। उस समय लंबाई के अनुपात कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 19.8 था जो अब बढ़कर 21% हो गया है। सरकार समस्याओं को स्वीकार करने और उसे दूर करने प्रतिबद्धता जाहिर करने की बजाय समस्याओं से आंख मूंद रही है । भूख और इलाज के बगैर मरने वाले हमारे बच्चों को अच्छा जीवन जरूरी है बड़े बड़े वादे नहीं।
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