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Thursday, October 4, 2018

सड़क दुर्घटनाएं राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बनतीं

सड़क दुर्घटनाएं राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बनतीं

अजीब है हमारा देश भी एक तरफ राफेल की खरीदारी व्यापक राजनीतिक मुद्दा बन जाती है लेकिन सड़क हादसों में हर साल डेढ़ लाख लोगों के मारे जाने घटना कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बनती। हैरत होगी यह जानकर कि हमारे देश में आतंकवाद और नक्सलवाद से कहीं ज्यादा लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं। हमारे राजनीतिज्ञ आतंकवाद से लड़ने की कसम खाते हैं,नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की शपथ लेते हैं।  अपहरण का भय खत्म करने का वादा करते हैं । दंगों और भुखमरी को दूर करने की बात करते हैं लेकिन कोई नहीं देखता कि भारत में सबसे ज्यादा लोग चलते-चलते मर जाते हैं। लोग घर से दफ्तर जाने के लिए निकलते हैं ,बच्चे स्कूल जाने के लिए निकलते हैं लेकिन किसी  तेज रफ्तार कार से कुचलकर जान दे देते हैं या फिर गाड़ी वाले बस वाले की जल्दबाजी के कारण गड्ढे में गिरकर जान गंवा देते हैं। भारत सरकार के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2017 में 20 हजार 457 पैदल यात्री सड़क चलते हादसों के शिकार हो गए। यानी हर रोज 56 यात्री सड़क चलते मारे जाते हैं। विडंबना यह है की आम भारतीय इन हादसों को इत्तेफाक मानकर चुप हो जाता है। इसके पीछे असुरक्षित जीवन जीने वाले आम भारतीयों का नियती वादी मनोविज्ञान है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सड़क हादसों में मारे जाने वालों को क्षति पूर्ति नहीं दिए जाने पर गुस्सा जाहिर किया था। अदालत को बताया गया था इनमें आधे से ज्यादा ऐसे लोग हैं जिन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता । 2014- 15 में बीमा कंपनियों ने मुआवजे के रूप में 11 हजार 480 करोड़ रुपया मुआवजा दिया था तब भी आधे लोग क्षतिपूर्ति पाने से वंचित रह गए थे।
     कुछ दिन पहले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि भारत में हर साल 5 लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं जिनमें डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या हमारे समझ और संवेदनाओं को झकझोर नहीं पाती। इंसान की मौत फकत आंकड़ों में बदलकर फाइलों में दबी रह जाती है और हम यानी आम भारतीय इसे  संजोग मानकर रह जाते हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जब यह स्तंभ लिखा जा रहा होगा तो देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई मर रहा होगा या कोई घायल तड़प रहा होगा। जब तक इसे पढ़ा जा रहा होगा कहीं ना कहीं कोई परिवार उजड़ गया होगा। साल भर में 5 लाख लोग कम नहीं होते। इन 5 लाख लोगों से एक शहर बन सकता है। देश के एक कस्बे की आबादी होगी इतनी। यानी हर साल हम अपने देश का एक कस्बा सड़क दुर्घटनाओं की भेंट चढ़ा देते हैं। इतने लोग हमारे बीच से अचानक गुम हो जाते हैं । इनमें कुछ हमारे अपने भी होंगे।
       अब प्रश्न उठता है कि इतने हादसे होते क्यों है ?व्यवस्था या सरकार क्या कहती है? अगर किसी से जवाब मांगा जाय तो साधारण सा जवाब है कि गाड़ी चलाने वाला कोई नियम कानून नहीं मानता। हाईवे पर ट्रक चलाने वाले या तो काम के बोझ से  थके होते हैं या शराब के नशे में होते हैं और इसी के कारण  किसी को कुचल कर बैठ जाते हैं।
  दुनिया के अन्य विकसित देशों में इतनी दुर्घटनाएं नहीं होती । सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखती हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2014 में इंग्लैंड में सड़क दुर्घटनाओं में 1775 मौतें हुईं जबकि 2005 में यहां तीन हजार से से ज्यादा लोग मारे गए थे। इंग्लैंड के मुकाबले अमरीका बड़ा देश है और वहां गाड़ियां भी ज्यादा हैं लेकिन वहां भी सड़क हादसों में साल में करीब 30हज़ार लोगों की मौत होती है। भारत के मुकाबले हो सकता है चीन के आंकड़े हों। लेकिन वहां के आधिकारिक आंकड़े स्पष्ट नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि वहां साल में डेढ़ लाख लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं, लेकिन सरकार इंकार करती है।
      भारत में लोगों की जान सस्ती है।  इतने लोगों के मारे जाने के बावजूद यह कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बनता। सड़कें, पानी और बिजली पर हमारे देश में चुनाव लड़े जाते हैं लेकिन सड़कों पर हादसे होते हैं तो कोई ध्यान नहीं देता । इन दिनों रफ्तार पर ज्यादा जोर है। कोलकाता और हावड़ा की सड़कों पर पुलिस की ओर से एक बड़ा सार्थक नारा लिखा हुआ है- "स्पीड थ्रील्स बट किल्स।" लेकिन यह मानता कौन है ? रफ्तार की वृद्धि किसी मारक  बीमारी की तरह हो रही है। लेकिन इस विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इसके लिए हमें अपने वर्गीय चरित्र  को समझना होगा। सीवर को साफ करने में हर साल देश में तकरीबन 25 हजार लोग मारे जाते हैं । इनमें ज्यादातर मौतें खबर नहीं बनतीं।  मारे जाने वाले लोग हाड़ तोड़ मेहनत करके रोटी कमाने वाले भारतीय हैं ,खाए पिए और अघाए इंडियन नहीं है। सड़क पर कुचल कर मर जाने वाले या सीवर में घुट कर मरने वाले लोगों के जिंदगी  के दूसरे पक्ष में अहंकार के पर्वत हैं। कुछ लोगों में आर्थिक दबदबे या समाज रुतबे का दंभ है जो अक्सर सड़क पर गाड़ियां  चलाते समय अहंकार के पहाड़ से दबे रहते हैं और रफ्तार का खेल दिखाते हैं। ये लोग सड़कों पर चलते लोगों को कुचल देते हैं और वकीलों की मदद से छूट जाते हैं ।  हमारे यहां एक कहावत है कि विकसित होना है तेज चलना होगा। थॉमस टेलर की मशहूर पुस्तक" द फ़ैलेसी ऑफ स्पीड " में बड़ा सुंदर  उदाहरण दिया गया है कि " अगर जंगल में टहलते हैं तो बड़ा मनोरम लगता है पर दौड़ने लग जाएं तो पेड़ से टकरा जाएंगे घायल हो जाएंगे।" तेज रफ्तार की हवस दूसरों के पीछे छोड़ने मनोविज्ञान है और इस हवस का शिकार हो अगर कोई कुचल भी जाता है क्या फर्क पड़ता है।

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