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Sunday, October 21, 2018

पुलिस सुधार ज़रूरी पर कैसे 

पुलिस सुधार ज़रूरी पर कैसे 

अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में एक निजी कंपनी के अधिकारी को पुलिस के एक अफसर ने सिर्फ इसलिए गोली मार दी क्यों उसने उसके इशारे पर गाड़ी नहीं रोकी थी। देश में कहीं न कहीं हर रोज ऐसी घटनाएं घटती हैं जिसमें पुलिस की  बर्बरता दिखाई पड़ती है।  जब  ऐसी घटना होती है तो पुलिस सुधार की बातचीत शुरू हो जाती है । अब से कोई 40 साल पहले पुलिस सुधार के लिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग बना था। हम पुलिस सुधार की बातें करते हैं लेकिन हकीकत कुछ दूसरी है इस लिए सुधार हो नहीं पाता।
       1960 में भारत और अमरीका में कानून और व्यवस्था  की एक ही तरह की स्थिति पैदा हुई थी। सड़कों पर हिंसक घटनाएं बढ़ने लगी थीं। लेकिन, दोनों देशों ने उसे अलग अलग ढंग से निपटाना आरंभ किया। अपराध न्याय पद्धति से उम्मीद की जाती है कि उससे शांति और व्यवस्था कायम हो । लेकिन, यह तभी हो सकता है जब कानून की हिफाजत करने वालों की संख्या ज्यादा हो या फिर अधिकांश लोग खुद ब खुद  कानून का सम्मान करें।  यह पुलिस की जिम्मेदारी है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करे। आधुनिक पुलिस व्यवस्था के जनक कहे जाने वाले रॉबर्ट पील के मुताबिक "पुलिस एक तरह से वर्दी धारी नागरिक है।" उनके अनुसार पुलिस को समाज से सहयोग कर कदम आगे बढ़ाना चाहिए और अपराध की रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए।
      आज अपराधों की खबर से अखबार भरे रहते हैं । हर जगह अपराधों की चर्चा होती है। छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं बढ़ रहीं हैं। लिंचिंग जैसे अपराध बढ़ रहे हैं। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में कानून के प्रति बहुत  सम्मान कम है ।अपराधी खुल कर मनमानी कर रहे हैं और आम आदमी चाहता है पुलिस न केवल उनकी हिफाजत करे बल्कि न्याय भी जल्दी हो और कम खर्चीला हो।  इसके लिए अपराध न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी है । 
लेकिन सुधार कैसे हो? यह बहुत बड़ा सवाल है। एक बार बातों ही बातों में पश्चिम बंगाल के सरकारी रेलवे पुलिस के महानिदेशक अधीर शर्मा से अपराध के "पेशेवर रोकथाम मॉडल" पर बातें होने लगी।  अमरीका के मॉडल का उदाहरण दिया गया । जिसमें में पूरी रोकथाम व्यवस्था लगातार गश्त, घटनास्थल पर जल्दी पहुंचना और तीव्र जांच पड़ताल पर निर्भर है। श्री शर्मा ने भारतीय स्थिति में इसे नाकामयाब बताते हुए कहा कि इससे आम आदमी की अपराध रोकथाम में भूमिका कम हो जाती है। अमरीकी मॉडल में मोटर  पर सवार पुलिस व्यवस्था आम आदमी से दूर हो जाती है । पुलिस आमतौर पर घटनास्थल पर लोगों से बातचीत करती है और समुदाय से अलग रहती है। श्री शर्मा का मानना है  कि भारत में अपराध रोकथाम के लिए पुलिस को समुदाय से संपर्क करना जरूरी है क्योंकि ,यहां न केवल पुलिस बल की संख्या कम है बल्कि संसाधन भी कम हैं।
        अमरीका में 1960 में जब अपराध और शहरी दंगे बढ़े तो इस पर काम करने वालों ने अपराध के पूरे मॉडल पर प्रश्न उठाया। एक अध्ययन में यह मालूम हुआ की अपराध रोकथाम की प्रक्रिया में गश्त के अनुपात में गिरफ्तारी की संख्या महज 20% है ।अधिकांश घटनाओं में गश्त पर गए पुलिसकर्मी झगड़े रोकते हैं ,आपात स्थिति में मदद करते हैं और व्यवस्था कायम करते हैं। अक्सर आम लोग पुलिस को कई काम के लिए बुलाते हैं। यह सारे काम कानून की किताबों में नहीं लिखे हैं। अधिकांश ऐसा होता है जब पुलिस ऑफिसर  आत्मनिर्णय  से काम करते हैं । खासकर घटनाओं से निपटने के वक्त । श्री अधीर शर्मा बंगाल में या देश में होमगार्ड्स की व्यवस्था पर बातें करते हुए बताया की यह एक तरह से अपराध रोकथाम का पेशेवर मॉडल है। यह समाज में समस्याओं को सुलझाने में पुलिस की मदद करता है। जहां होमगार्ड्स की तैनाती होती है एक तरह से वहां के आस पास के वातावरण से तालमेल स्थापित करने में पुलिस की सहायता करता है। जिससे अदालत के बाहर अपराध को सुलझाने में मदद मिलती है ।
      इधर कई वर्षों से अपराध के तरीके तथा टेक्नोलॉजी बदल गई है। पुलिस पर सबूत जुटाने की नई -नई जिम्मेदारियां आ गयीं हैं।  वह जिम्मेदारियां लगातार बढ़ती जा  रहीं हैं। एक तरफ  आतंकवाद  से जुड़ी घटनाएं हैं  तो दूसरी तरफ  साइबर क्राइम हैं। इनकी जटिलताओं ने पुलिस के काम को और बढ़ा दिया है । साथ ही समाज तरक्की कर गया है जिससे पुलिस से उम्मीदें और बढ़ गयीं हैं। ऐसे में पुलिस का बर्बर चेहरा समाज के अनुकूल नहीं है और ना देश के विकास के अनुकूल। अभी समय ऐसा आया है कि पुलिस को बदलने के लिए उसकी सोच और उसकी गतिविधियों को बदलना होगा और इसके लिए पुलिस सुधार आयोग जो  व्यवस्था होती रही है वह पुरानी पड़ गई है । अपराध हर काल में समाज में रहे हैं और उनकी रोकथाम की समय के अनुरूप व्यवस्था भी की गई है। अपराध चूंकि  मनोवैज्ञानिक वृत्ति है इसलिए इसके रोकथाम की समय सापेक्ष व्यवस्था होनी चाहिए । सामाजिक मनोविज्ञान समय से निरपेक्ष नहीं होता।
      

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