विपक्षी एकता दूर की कौड़ी
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का वक्त नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे सियासी सरगर्मी बढ़ रही है। चारों तरफ अटकलों का बाजार गर्म है। कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा चुने जाने के बारे में तरह-तरह के आकलन कर रहा है । कोई कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गोलबंदी की बात कर रहा है। कोई कांग्रेस और मायावती से मिलने की संभावनाओं को प्रबल बता रहा है। सब के पास अपने-अपने तर्क हैं और सब तर्क सही लग रहे हैं । लेकिन, हालात कुछ और ही बता रहे हैं।
अब जैसे भाजपा विरोधी विचारधारा समीक्षकों का कहना है कि पिछला कुछ समय भाजपा के लिए अशुभ रहा । हाल में एक केंद्रीय मंत्री ,जो कुछ साल पहले पार्टी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं , ने कहा कि पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए झूठे वायदे किए थे। यही नहीं रफाल सौदे में अनिल अंबानी से सांठगांठ, आधार, धारा 370, तेल की ऊंची कीमतें ,गिरता रुपया, डूबता शेयर बाजार और एक मंत्री पर सेक्सुअल हरासमेंट के आरोप इत्यादि घटनाओं ने पार्टी की छवि को खराब कर दिया है। इससे इसकी चुनावी संभावनाएं बिगड़ रही हैं । सचमुच अचानक इतनी घटनाओं से सरकार की विश्वसनीयता को धक्का लगा है। विपक्ष तो मना ही रहा है कि जिस तरह बोफोर्स से कांग्रेस की हालत खराब हो गई थी उसी तरह राफेल इसे ले डूबे। कहते हैं ,इस नई स्थिति से विपक्ष के हौसले, खासकर ,कांग्रेस के हौसले काफ़ी बुलंद हैं।
लेकिन, कांग्रेस भी बहुत अच्छा नहीं कर रही है।। पहले यह कहा गया कि विपक्ष एकजुट होकर भाजपा को मजबूत टक्कर देगा। इसके लिए जरूरी था कि अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस विपक्ष से अलग अलग तरह की गोल बंदी करे । लेकिन गोलबंदी दूर की कौड़ी लग रही है ।क्योंकि कई दल अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं और गोल बंदी नहीं होती नजर आ रही है।
उत्तर प्रदेश में उपचुनाव के नतीजों के बाद से महागठबंधन उम्मीद नजर आने लगी थी। कहा जाने लगा था कि बसपा, सपा, रालोद, कांग्रेस और कुछ अन्य दल मिलकर भाजपा को टक्कर देंगे। इसकी पहली झलक कर्नाटक में दिखी जब मायावती के प्रयास से जनता दल सेकुलर और कांग्रेस करीब आ गए। लेकिन अब मायावती कांग्रेस से अलग अपनी राह अपना रही हैं। छत्तीसगढ़ में उन्होंने अजीत जोगी से गठबंधन कर लिया और पूरी आशंका है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में इससे कांग्रेस को नुकसान होगा। हरियाणा में मायावती ने चौटाला से हाथ मिला लिया और कहते हैं कि चौटाला मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस- बसपा गठबंधन की बात थी। ऐसा नहीं हुआ और बसपा वहां अकेले चुनाव लड़ रही है । वही हाल यूपी में भी है । यहां सपा बसपा के मिलकर लड़ने की बात चल रही है। कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं दिख रही है। कर्नाटक में भी कुमार स्वामी सरकार से बसपा मंत्री इस्तीफे को भी मायावती के कांग्रेस से अलगाव की तरह देखा जा रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद का व्यापक प्रभाव है और उसके नेता जयंत चौधरी का कहना है कि कांग्रेस विपक्ष को गोलबंद नहीं कर सकेगी। क्योंकि ,कांग्रेस दूसरे दलों की उम्मीदों के प्रति संवेदनशील नहीं है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी यह प्रचारित कर रही है कि कांग्रेस को दिया जाने वाला वोट परोक्ष रूप से भाजपा का समर्थन है। दो- एक राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में कांग्रेस के गठबंधन की स्थिति स्पष्ट नहीं दिख रही है।
राजनीतिक विकल्प के लिए सबसे जरूरी है उसका कोई कार्यक्रम हो ,उसका कोई एजेंडा हो। लेकिन कांग्रेस के साथ जो भी सहयोगी दल आ सकते हैं उसे लेकर कोई एजेंडा नहीं दिख रहा है। कांग्रेस की उम्मीदें भी राफेल सौदे पर ही टिकी है। बिहार में जब नीतीश कुमार ने कांग्रेस का साथ छोड़ा तो उन्होंने भी यही कहा था कि पार्टी के बीच न संवाद है ना समन्वय। कोई तो अधिकृत व्यक्ति हो जिससे संवाद हो। संवाद का अभाव कांग्रेस में शुरू से है । यहां तक कि नेहरू के जमाने में भी पार्टी के अंदरूनी संवाद में दिक्कतें थीं, आज भी हैं। कुछ समीक्षकों का कहना है कि अगर इसमें प्रियंका गांधी को शामिल किया जाए तो कुछ उम्मीद बढ़ेगी और कांग्रेस को एक गठबंधन बनाने में मदद मिलेगी। लेकिन अभी ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है। जिससे जनता में उम्मीद हो कि मोदी के खिलाफ एक मजबूत गठबंधन सामने आ रहा है। अभी जो स्थितियां हैं उससे ऐसा लगता है कि देश में राजनीतिक विकल्प का अभाव है और यथास्थिति बने रहने की उम्मीद है।
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