समाज में आपराधिकता बढ़ती जा रही है
गुजरात में एक नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार के बाद वहां बाहर से आए, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश आए लोगों पर हमले होने लगे। उनके साथ मारपीट होने लगी। यही नहीं , रोजाना देश में कहीं न कहीं, किसी न किसी पर हमले होते हैं। बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाया जाता है या फिर सांप्रदायिक दुर्भावना दिखाई पड़ती है। क्या कारण है कि आज जबकि हमें अपराधिकता से खुद को दूर रखना चाहिए हम इसमें जुड़ते जा रहे हैं। किसी न किसी तरह जब भी हम अपनी निजता के अधिकार की बात करते हैं तो उसके साथ ही हमें उपलब्ध आपराधिक आंकड़ों को समन्वित रूप से देखना होगा। आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रशासन के लिए यह आवश्यक भी है । अपराध की रिपोर्ट कैसे की जाती है यह जानना -समझना जरूरी है।क्योंकि उस रिपोर्ट के आधार पर आंकड़े तैयार होते हैं। उन तैयार आंकड़ों का कैसे विश्लेषण होता है और फिर उनको कैसे अलग अलग स्वरूपों में बांटा जाता है, जो अपराध के स्वरूप की व्याख्या करते हैं। केवल आपराधिक न्याय प्रणाली की नहीं सामाजिक व्यवस्था की सुरक्षा और समाज का विकास भी आपराधिक आंकड़ों की स्थिति पर निर्भर करतें हैं
आज आंकड़ों का राजनीतिकरण होने लगा है और यही नहीं सियासत भी आंकड़े एकत्र करने के विभिन्न तौर - तरीकों में हस्तक्षेप करने लगी और यहां तक कि यह उन्हें मनमाने ढंग से तोड़ने मरोड़ने में लगी है।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने अगले वर्ष से विभिन्न आयामों में अपराध से जुड़े आंकड़ों के संग्रहण और वर्गीकरण में सुधार का प्रस्ताव दिया है। इसमें मीडिया से जुड़े लोगों ,वरिष्ठ नागरिकों, आरटीआई और सामाजिक कार्यकर्ताओं, गवाहों, खाप पंचायत ,राजनीतिक दलों और संगठित समूह के खिलाफ अपराध भी शामिल हैं। अब साइबर अपराधों के भी आंकड़े एकत्र किए जाएंगे। यही नहीं, पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायतों पुलिस द्वारा मानवाधिकार के हनन की घटनाओं हिरासत में मौतें और पुलिस हिरासत से फरार होने के मामलों के भी आंकड़े तैयार किए जाएंगे।
शायद इन आंकड़ों का और विपुंजन किया जाए। जिसमें अपराधी और अपराध के शिकार दोनों का जिक्र हो । क्योंकि ,जिनको अपराधी कहा जाता है वह जन्मजात तो होते नहीं बल्कि हमारा समाज उन्हें अपराधी बनाता है। इसलिए अपराध करने वालों और अपराध के शिकार हुए लोगों से संबंधित सही अभिलेख अपराधी बनने की स्थितियों को समझने में मदद पहुंचाएगा।
विख्यात अपराधी शास्त्री सोडरमैन के अनुसार "जिस समाज में अपराध के आंकड़े सही सही ढंग से नहीं तैयार किए जाते उस समाज में अपराध का काला चेहरा तेजी से उभरता है । " अब यदि सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बावजूद एफ आई आर नहीं दर्ज की जाती है तो अपराध का काला चेहरा सुरसा के मुंह की तरह फैलता जाता है और घिनौना तथा डरावना होता जाता है। सरेआम पीट-पीटकर मार दिया जाना या किसी को नंगा करके घुमाया जाना इसी तरह के अपराध के काले चेहरे हैं। ऐसी स्थितियों में कानून बनाने वाले भी अपराध में संलग्न हो जाते हैं और इससे एक आपराधिक चक्र आरंभ हो जाता है, जिसका अंत दिखाई नहीं पड़ता।
कानून और आर्थिक आंदोलन से जुड़े लोग सिद्धांत के रूप में तथा व्यवहारिक रूप में इस बात को लेकर काफी उग्र रहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन नीतियों के माध्यम से होता है या सक्षम पुलिस व्यवस्था तथा दंड न्याय के कारण होता है। कानून का मानना है कि दंड की सुनिश्चितता उसकी कठोरता से ज्यादा मायने रखती है और यही बात पुलिस व्यवस्था और उससे जुड़े प्रशासनिक खर्चो के लिए सरकारी निवेश भी मानता है। जहां तक अपराध का आर्थिक दृष्टिकोण है उसके बारे में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री गैरी बेकर का मानना है कि दंड की कठोरता उसकी सुनिश्चितता से कहीं ज्यादा जरूरी है क्योंकि इससे कुछ खर्चे कम हो जाते हैं।
आगे चलकर ज्यादा गिरफ्तारियां की संभावना दिखाकर ज्यादा पुलिस व्यवस्था के बाद अपराध और इससे जुड़े खर्चों को कम किया जा सकता है। अपराध के कारणों पर व्यापक सामाजिक बहस की जगह पुलिस व्यवस्था ज्यादा प्रभावशाली करनी होगी। खास करके तब जबकि सामाजिक व्यवस्था के भंग की जाने की छोटी-छोटी घटनाओं की श्रृंखलाएं हों और उसे अंजाम देने वाले लोगों को दंड दिया जाता है। इसी सिद्धांत से प्रेरित होकर न्यू यार्क पुलिस1990 में छोटे छोटे अपराध करने वालों को भी पकड़ने लगी। इसके लिए ज्यादा पुलिस व्यवस्था की जरूरत पड़ने लगी
भारत में हाशिए पर रहने वाले समाज में ज्यादा पुलिस कर्मियों की मौजूदगी और वहां के रहने वालों द्वारा किए जाने वाले अपराधों के सही-सही आंकड़े बनाए जाने चाहिए। लेकिन उन समन्वित आंकड़ों को विभिन्न वर्गों में बांटे जाने की जरूरत है। एनसीआरबी पुलिस की मौजूदगी आधार पर राज्य स्तरीय आंकड़े प्रस्तुत करता है लेकिन इससे इस बात का पता नहीं चल पाता की किस अपराध के लिए कितनी पुलिस तैनाती हो । क्यों नहीं जिला स्तरीय या ब्लॉक स्तरीय यहां तक की थाना स्तर पर तैयार किये जायें।
बेशक , पूरी तरह अपराध खत्म नहीं किए जा सकते और ना आंकड़ों के अशुद्ध होने की घटनाओं को। क्योंकि पुलिस अधिकारी भी पूरी तरह भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हैं। मिसाल के तौर पर देखें की एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि बिहार तथा उत्तर प्रदेश में दिल्ली से कम अपराध होते हैं। लेकिन जब गिरफ्तार किशोरों के अपराधों का विश्लेषण किया गया तो पता चलता है कि परिवार को परेशान करने के लिए भूतों को यूं ही गिरफ्तार कर लिया गया है। हालांकि , अपराध के आंकड़े उपलब्ध हैं। जिनमें कट्टर अपराधियों के सामाजिक आर्थिक चरित्र का भी वर्णन किया गया है। आंकड़ों का विश्लेषण इस बात की व्याख्या करता है कि कौन सी प्रवृत्ति या नीतियों के प्रभाव अपराध को अग्रसारित करते हैं ।बिना इसे जाने अपराध का शमन संभव नहीं है। गुजरात में जो कुछ भी हो रहा है या देश के अन्य भागों में जो कुछ भी हो रहा है वह अपराध की व्याख्या को तोड़ने मरोड़ने का ही नतीजा है।
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