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Tuesday, April 30, 2019

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है


कभी कहा जाता था कि
" इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है हिंदुस्तान की "
उसी धरती पर आज हिंसा फरेब अविश्वास का जोरदार तूफान चल रहा है। जरा गौर करें
पिछले चुनाव में लोगों को भरोसा दिलाया गया था अगर भाजपा सरकार आती है तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। देश को बताया गया था कांग्रेसी देश को लूट रहे हैं। देश बर्बाद हो रहा है। शिक्षा का पूरा ढांचा समाप्त हो गया है। देश के अधिकांश लोग परेशान हैं । दलितों की हालत खराब है। इत्यादि। सरकार ने यह भी बताया था कि काला धन वापस लाया जाएगा लोगों को नौकरियां दी जाएगी और देश मजबूत होगा। इस तरह और भी कई मसले थे। सचमुच  यह हालात थे और यह बेहद जरूरी सवाल थे। जो आज भी यानी 5 वर्षों के बाद भी हमारे सामने खड़े हैं। उनका क्या हुआ? काला धन खत्म करने के नाम पर नोटबंदी की गई लेकिन नोट बंदी के फैसले पर बड़ी बहस नहीं हो सकी जिससे आम लोगों को इसे समझने में मदद मिलती। नोट बंदी से छोटे छोटे व्यापार तबाह हो गए। 100 से ज्यादा लोग जान से हाथ धो बैठे । भ्रष्टाचार का भस्मासुर अभी भी कायम है और आतंकवाद चारों तरफ से डरा रहा है। इस चुनाव में जो हम लोग देख रहे हैं उससे देखते हुए कई बार ऐसा लग रहा है यह सरकार बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं कोई तमाशा है। जो मसले सुर्खियों में हैं उनका कोई हासिल नहीं है। मसले तेजी से उभर रहे हैं और उतनी ही तेजी से खत्म हो जा रहे हैं। लोगों को ना इन्हें सोचने का वक्त मिलता है ना समझने का। इनकी तीव्रता को देख कर ऐसा लगता है जानबूझकर आम जनता के सोचने समझने की प्रक्रिया को बाधित कर दिया जा रहा है ताकि  जनता किसी भी मसले पर ठोस राय नहीं बना सके कि इसका मकसद क्या है?
          जरा गौर से सोचें, ऐसा नहीं लगता  है कि क्या बाजार की ताकतें और ताकतवर जातियों के समूहों ने देश के अधिकांश आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर लिया है। सरकारी उपक्रम या तो लाचार हैं या तो कमजोर हो चुके हैं।  निजी क्षेत्र अंगद की पांव की तरह जमाये हुये है। धन का केंद्रीकरण हुआ है । भारत का समाज क्योंकि जाति और संस्कृति के आधार पर ऊपर से नीचे तक सजा हुआ है इसमें ऊंच-नीच का भाव है इसलिए सरकार के सभी फैसले यह सोच कर हुए हैं कि उससे  जातिगत समीकरण साधने में सुविधा हो। हिंसा बढ़ती जा रही है यहां तक की हमारे समाज में छोटे-छोटे बच्चे भी हिंसक हो रहे हैं। पिछले 5 सालों के दौरान सांप्रदायिक  नफरत और दलितों के खिलाफ कुंठा का जोर बढ़ा है। नफरत एक राजनीतिक शक्ल में दिखाई पड़ने लगी है और ऐसा लगता है कि इसका मकसद है देश को ध्रुवों में बांटना और वह दो ध्रुव हैं हिंदू और मुसलमान । हमारे देश में हिंदुओं के समानांतर इस्लाम के अलावा कई अन्य अल्पसंख्यक धर्म हैं जैसे सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि।लेकिन पूरे देश को हिंदुओं और मुसलमानों के ध्रुवों में बांटने के पीछे आखिर क्या मंशा है ? क्रिकेट खेलने वाले बच्चे लाठी ,तलवार इत्यादि लेकर किसी पर हमला कर देते हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह हमला कर देते हैं बल्कि यहां  यह महत्वपूर्ण है कि यह भाव कहां से आता है उनके मन में यह हमला करने के बाद उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं।  अगर यह सत्ता से जुड़े किसी संगठन  की शह पर नहीं हो रहा है तो और भी खतरनाक बात है। सामान्य जिंदगी जीते हुए लोग अचानक इतने हिंसक कैसे हो जाते हैं और आतंक मचाने में शामिल हो जाते हैं? दरअसल हमारे नेताओं में जिस तरह के सांप्रदायिक दुराग्रह दिख रहे हैं उसका तो असर होगा ही। उद्देश्य है कि ऐसी घटनाओं के लिए केवल हवा भर दी जाए बाकी तो जनता देख लेगी। समाज के लोगों को और उनके सोचने समझने के ढंग को इस स्तर का बनाया गया है या बनाए जाने की कोशिश की जा रही है कि नफरत की हवा भर से हिंसा की ज्वाला भड़क उठेगी। चुनाव के दिन बंगाल में क्या हुआ? मारपीट और अन्य हिंसक घटनाएं हुईं और पुलिस चुपचाप खड़ी देखती रही। हालात कुछ ऐसे ही होते जा रहे हैं।  मामूली बात पर भी "दुश्मन " को पकड़कर पीट-पीटकर मार दिया जाता है या भीड़ के हवाले कर दिया जाता है।
            सोचिए आने वाले दिनों में कौन सी सभ्यता विकसित हो रही है ? इस सभ्यता में आम लोगों को इस तरह तैयार किया जा रहा है कि उन्हें किसी जानवर के नाम पर किसी आदमी को पीट-पीट कर मार डालने में कोई संकोच नहीं हो। कोई सोचता तक नहीं है।  चुनाव में चतुर्दिक हिंसा इस बात का प्रमाण है कि लोगों में लोकतंत्र और सहिष्णुता पर से भरोसा उठ गया है और लोग अपनी इच्छित पार्टी की सरकार बनाना चाहते हैं ताकि उनकी नफरत से भरा ईगो कायम रहे। इस समाज व्यवस्था को तैयार करने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि जो दोषी हैं उनके संरक्षण का समय-समय पर दिखावे के लिए ही सही आयोजन होते रहना चाहिए। इसके लिए कभी किसी मंत्री के मुंह से इसे सही ठहरा दिया जाता है कभी किसी मंत्री के हाथों ऐसे लोगों को माला पहना दिया जाता है। इससे इनका मनोबल बना रहता है।
          यह सब क्यों हो रहा है? असभ्यता और बर्बरता का यह कारोबार क्यों चल रहा है? सिर्फ इसलिए कि समाज को अपने वास्तविक हकों के बारे में सोचने की फुर्सत ही न मिले।  चुनाव के दौरान  सरकार ने जो वादे किए थे उस पर कोई सोचे ही नहीं। सरकार क्या कर रही है उस पर किसी की नजर जाए ही नहीं । शिक्षा और रोजगार तक पहुंच की व्यवस्था को बहुत शातिर ढंग से बाधित कर दिया गया है या के सीमित कर दिया गया है, जिसका उद्देश्य है कि  वहां तक केवल साधन संपन्न लोग ही पहुंचें और अगर कोई इस पर सोचता भी है तो केवल इसी ढर्रे पर सोचे बाकी मसलों को दफन कर दे। इस तरह का समाज बनाने वालों ने वालों को एक बार भी नहीं सोचा कि हम भविष्य कैसा बना रहे हैं? राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों के बल पर एक ऐसे समाज का गठन किया जा रहा है कि  रोजमर्रा इस जिंदगी में उलझे लोग भी हिंसा की सियासत पर भरोसा करने लगें और अपने ही देश के दूसरे समुदाय के लोगों को अपना दुश्मन मान बैठें। अगर इस मुल्क को बचाना है और  आजादी की जंग में शहीद हुए लोगों की उन भावनाओं की कद्र करनी है जिसमें उन्होंने कहा था

हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के रखना इस देश को मेरे बच्चों संभाल के
      
स्पष्ट है अपने देश में बढ़ती हिंसा तनाव को कम करने के लिए बहुत कुछ करना होगा और इसके लिए जो सबसे ज्यादा जरूरी है वह आपस में बातचीत और एक दूसरे के  रस्मो रिवाज को समझने की।  हमें एक समुदाय से नफरत किए जाने की बात  जो सिखाई जा रही है उसे नजरअंदाज करने की। यह सबसे बड़ी आवश्यकता है वरना जो आज वरना जो आज हम सड़कों पर देख रहे हैं कल हमारे घर के भीतर भी हो सकता है। क्योंकि

मोहब्बत करने वालों में यह झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
तवायफ की तरह अपनी गलत कारी के चेहरे पर 
हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है

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