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Thursday, June 20, 2019

एक राष्ट्र एक चुनाव

एक राष्ट्र एक चुनाव

प्रधानमंत्री मोदी ने बुधवार को "एक राष्ट्र एक चुनाव" मसले पर विचार के लिए सभी दलों के प्रमुखों की बैठक  बुलायी थी।  इस बैठक में 19 दलों ने हिस्सा नहीं लिया। जिनमें प्रमुख थे कांग्रेस, तृणमूल, बसपा, सपा, द्रमुक इत्यादि। प्रधानमंत्री ने इस बैठक  का उद्देश्य बताया कि संसद के दोनों सदनों में ज्यादा से ज्यादा कामकाज होने, आजादी के 75 वर्ष में नए भारत के निर्माण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 25 वीं जयंती  से संबंधित समारोह, तथा आकांक्षी जिलों के विकास के मसले पर विचार के लिए इस बैठक को बुलाया गया है।  अब "एकदेश एक चुनाव" प्रस्ताव पर विस्तृत अध्ययन के लिए प्रधानमंत्री एक समिति गठित करेंगे जो निर्धारित समय सीमा में अपनी रिपोर्ट देगी और उसके आधार पर कदम आगे उठाए जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कई राजनीतिक दलों के प्रमुखों ने हिस्सा लिया। बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बताया कि ज्यादातर दलों ने देश में सभी चुनाव एक साथ कराने के मसले का समर्थन किया। केवल सीपीएम तथा सीपीआई ने सवाल उठाया कि यह कैसे होगा और इसका तरीका क्या होगा? राजनाथ सिंह ने बताया कि यह मिली जुली समिति होगी।
मोदी जी ने जो प्रयास किया है वह पहली बार नहीं किया जा रहा है। पहला आम चुनाव जो 1951 में हुआ था उस समय भारतीयों ने केंद्र और राज्य सरकारों के लिए वोट दिया था। यह व्यवस्था 1967 तक चली। इसके बाद थोड़ी गड़बड़ी हो गई। क्योंकि कई राज्यों में विधानसभाएं समय से पहले भंग कर दी गईं और उससे दोनों चुनाव गड़बड़ हो गये।  वह अब तक चलता रहा है। 1999 में केंद्र  सरकार के विधि आयोग ने एक साथ चुनाव कराने की सलाह दी थी। लेकिन इसमें एक मुश्किल दिखती है । हमारा लोकतंत्र या हमारा शासन तंत्र वेस्टमिंस्टर प्रणाली का है इसमें विधायिका या कह  सकते हैं विधानसभा और लोकसभा  का कोई निश्चित  जीवन काल नहीं है। वैसे यह व्यवस्था 5 वर्षों के लिए होती है लेकिन बीच में भी भंग हो सकती है और नए चुनाव कराए जा सकते हैं या सरकार किसी कारणवश गिर जाती है तब भी नई सरकार बन सकती है । अब यदि एक साथ चुनाव कराए जाएंगे तो बहुत बड़ा बदलाव लाना पड़ेगा भारतीय शासनतंत्र  के गठन में। 2018 में केंद्रीय विधि आयोग ने प्रस्ताव दिया था की रचनात्मक अविश्वास मत हासिल किया जाए। ऐसे में किसी सरकार को विधानसभा या लोकसभा के सदस्य अविश्वास मत से गिरा सकते हैं और जिसमें विश्वास हो उसे सरकार के तौर पर उसके स्थान पर शपथ दिलाई जा सकती है। दूसरा प्रस्ताव था कि लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने के लिए उनकी अवधि एक बार कम कर दी जा सकती है। लेकिन इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। 
इंग्लैंड में  इसका एक विकल्प लागू किया गया था जिसमें संसदीय अधिनियम 2011 के मुताबिक प्रधानमंत्री  के उस अधिकार में कटौती कर दी गई  जिसके तहत वह  आकस्मिक चुनाव की घोषणा कर सकते थे। इससे कम से कम यह  हो गया कि संसद अपना कार्यकाल पूरा करेगी। लेकिन कई विशेषज्ञों ने इस पर टिप्पणी की एक।  इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने कहा कि अभी जो संवैधानिक संकट है वह इसी के कारण है।
        लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले दौर में भी प्रस्तुत किया था। उस समय इसे मामूली समर्थन मिला था। अब जबकि भाजपा को बहुत बड़ा जनादेश मिला है तो  स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री इस प्रस्ताव पर जोर देंगे। यहां सबसे जरूरी है यह समझना इस योजना का भारत के लिए क्या अर्थ है और क्यों कुछ दल  इसका विरोध कर रहे हैं? मुख्य तौर पर  यह क्षमता का सवाल है। चुनाव आयोग  हर चुनाव के समय आदर्श आचार संहिता जारी करता है। इसमें पार्टियों तथा उम्मीदवारों के लिए निर्देश रहते हैं कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। सत्तारूढ़ दल इसका लाभ न हासिल कर लें इसलिए आचार संहिता में नई  योजनाओं और नई नीतियों की घोषणा वर्जित है। एक साथ चुनाव नहीं कराने में आदर्श आचार संहिता के कारण विकास के समय की बर्बादी होती है । जो एक साथ चुनाव के कारण  कम हो जाएगी। एक साथ चुनाव   कराने  के मसले पर गठित एक संसदीय स्थाई समिति द्वारा 2015 में संसद में प्रस्तुत रिपोर्ट के मुताबिक जिन राज्यों में चुनाव होते हैं उन राज्यों में केंद्र और राज्य सरकारों  की सभी विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं । इससे सामान्य प्रशासन भी प्रभावित होता है । बार बार चुनाव और बार-बार इस तरह की समय की बर्बादी विकास को भी प्रभावित करती है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक साथ चुनाव कराने से खर्च कम हो जाएंगे । सरकार के नजरिए से कर देखें तो एक साथ चुनाव कराने से करदाताओं के पैसे बचेंगे। बार बार चुनाव यानी  लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के कारण सरकारें दूरगामी योजना नहीं बना सकतीं। एक साथ चुनाव से  यह स्थिति नहीं आएगी।
  लेकिन जब यह इतना आदर्श है और इससे इतने फायदे हैं तो इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? यह कोई नई बात नहीं है । इसके पीछे  मनोविज्ञान यह है  कि दोनों चुनाव एक साथ कराने से उन पार्टियों को ज्यादा लाभ हो सकता है जिनका कई राज्यों में प्रभाव है। आईडीएफसी इंस्टीट्यूट एक अध्ययन के मुताबिक अगर एक साथ चुनाव कराए गए  तो भारतीय मतदाता  राज्य और केंद्र सरकार में एक ही पार्टी को वोट डालेंगे। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जो मतदाताओं के आचरण को प्रभावित करेगी। एक अध्ययन में 31 ऐसे मामलों का अध्ययन किया गया जिसमें राज्य और  केंद्र सरकार के लिए एक साथ चुनाव कराए गए।  उसमें 24 मामलों में पाया गया कि बड़े राजनीतिक दलों को मतदान का प्रतिशत लोकसभा और विधानसभा के लिए समान  प्राप्त हुआ। केवल 7 मामलों में मतदाताओं के चुनाव अलग-अलग थे।   इसलिए इसके आलोचक इसका विरोध कर रहे हैं ।  उनका यह भी  मानना है कि यह भारतीय फेडरल व्यवस्था को हानि पहुंचा सकता है। दूसरी बात  है कि चुनाव  सरकार पर एक तरह से नियंत्रण का काम करते हैं। उदाहरण के लिए, आपातकाल के दौरान न्यायपालिका और प्रेस दोनों ने केंद्र सरकार के सामने हथियार डाल दिए थे केवल चुनाव ने ही इंदिरा गांधी को  1977 में सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था।   यह एक ऐसी व्यवस्था है जो प्रभावशाली नियंत्रण का काम करती है। परंतु सरकार का यह तर्क भी बिल्कुल जायज है कि कम चुनाव से विकास को ज्यादा गति मिलेगी। हर सिक्के के 2 पहलू होते हैं एक सकारात्मक एक नकारात्मक । मोदी सरकार ने सकारात्मक पक्ष  को सामने रखा है।

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