अब तो जागे सरकार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी 20 सम्मेलन में शरीक होने के लिए ओसाका पहुंचे हुए हैं वहां भी विश्व नेताओं की बड़ी जमघट है और बड़ी-बड़ी बातें होंगी जिसमें अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी की मुलाकात होगी और व्यापार प्रतिबंध से लेकर धार्मिक असहिष्णुता तक पर चर्चा भी होगी। इतनी चमक-दमक तथा इतना प्रचार लेकिन बिहार के चमकी बुखार से मरने वाले बच्चों को लेकर जिस गंभीर संवेदनशीलता की आवश्यकता थी वह नहीं दिखाई पड़ रही। मरने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है। इन बच्चों की मौतों में संपूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत क्या है इस पर लोकसभा में जो आंकड़े मिले वह पूरी व्यवस्था के तार-तार हो जाने की बात कहते हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन रिपोर्ट में फकत इतना कहा गया है जागरूकता और सही जानकारी के अभाव के कारण यह मौतें हुई हैं। अब सवाल उठता है कि जागरूकता और सही जानकारी कैसे मिलेगी उन बच्चों के गरीब मां बाप को। बिहार में दो तरह की चिकित्सा व्यवस्था है एक निजी और एक सरकारी। सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की हालत यह है कि कोई आदमी वहां इलाज के लिए तभी जाता है जब उसकी जेब बिल्कुल खाली रहती है और पेट में अन्न का दाना तक नहीं रहता। मतलब बेहद गरीब होता है और उसके साथ कैसा सलूक होता है यह कल्पना से बाहर है। साथ ही प्राथमिक सुविधा केंद्र और आंगनबाड़ी केवल नाम के लिए व्यवस्थाएं हैं। चिकित्सा व्यवस्था का दूसरा प्रकार है निजी। वहां डॉक्टर्स मशीन की तरह लगे रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं होती यह बताने की कि किसी रोगी को क्या हुआ है और उसकी रोकथाम हो सकती है। यही नहीं, कई बार ऐसा महसूस होता है की यह डॉक्टर किसी रोगी की बात सुन ही नहीं पाते हैं। एक-एक दिन में सैकड़ों रोगियों को देखा जाना। लगता है वहां बीमार लोगों का मेला लगा हुआ है। संसद में प्रश्नोत्तर के दौरान जो आंकड़े आए उसके अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 292 डॉक्टरों की कमी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 518 विशेषज्ञों का अभाव है। प्राथमिक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 1762 फार्मासिस्ट पद खाली हैं, 1438 पैरामेडिकल स्टाफ का अभाव है और 1738 नर्सों की कमी है । यह गांव और कस्बे की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ है। अगर सबको जोड़ दें तो बिहार में लगभग 6000 स्वास्थ्य कर्मियों का अभाव है। उधर आंगनबाड़ी को दरकिनार कर दिया गया है।
नीति आयोग के आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था में बिहार नीचे से दूसरे नंबर पर है। यानी प्रजनन दर, जन्म के समय वजन कम, लिंग अनुपात, संस्थागत प्रसव, टी बी के इलाज में सफलता जैसे तमाम पैमानों पर बिहार फेल हो चुका है। यही नहीं, स्वास्थ्य के मामले में राज्य में लगातार गिरावट आ रही है। नेशनल हेल्थ मिशन से जुड़ी रकम तक समय से जरूरतमंदों के पास नहीं पहुंच पाती। आंगनबाड़ी के निष्क्रिय हो जाने के कारण गरीबों तक बीमारियों की जानकारी नहीं पहुंच पाती और गरीबों के परिवारों तक पहुंचने वाली ग्लूकोज और अन्य जरूरत की चीजें भ्रष्टाचार के गाल में समा जाती है।
सुरक्षित मातृत्व के लिए जननी सुरक्षा योजना है और यह नेशनल हेल्थ मिशन के अंतर्गत है। इस योजना का उद्देश्य नवजात शिशु की मृत्यु दर को कम करना है। इसके माध्यम से गरीबों को मदद पहुंचाई जाती है। बिहार में ग्रासरूट स्तर से इतना भ्रष्टाचार है कि ऐसी योजनाओं का बुरा हाल हो गया है। दूसरी तरफ इसके लिए सरकार को मिला धन भी खर्च नहीं हो पाया। आंकड़े बताते हैं कि 2016 -17 में राज्य को इस मद में 34339. 71 लाखों रुपए मिले लेकिन उसमें से केवल 27286.25 लाख ही खर्च हुए। 2017- 18 में 34414 . 71 लाख मिले उन्हें केवल 274 842 . 74 लाख खर्च हुए। यही हाल 2018 में भी था अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक इस अवधि में बिहार को 34318 . 71 लाख मिले जिसमें से केवल 27504 4 दशमलव 59 लाख ही खर्च हुए।
अब अगर बच्चों की मौतों के कारण और इन पैसों का एक समीकरण बनाया जाए तो पता चलता है कि कितनी लापरवाही हुई है। बच्चे कुपोषण से मरे और उस कुपोषण को दूर करने के लिए जानकारी फैलाने के उद्देश्य से यह पैसे आए थे लेकिन खर्च नहीं हुए। इस लापरवाही का दंड किसे दिया जाना चाहिए यह अभी तय नहीं हुआ है।
बिहार की बीमार पड़ी स्वास्थ्य व्यवस्था का हल केवल बेहतर अस्पताल ही हो सकते हैं और इस मामले में भी हालात बड़े खराब हैं। पटना शहर में एक एम्स है जिस से उम्मीद की जाती है की यहां बहुत बढ़िया इलाज होगा लेकिन उससे बेहतर इलाज पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में होता है जिसकी स्थापना 1925 में हुई थी। बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के तहत डॉक्टरों की भारी कमी है जिसके कारण राज्य को मेडिकल कॉलेज या जिला अस्पतालों पर निर्भर होना पड़ता है और वहां भारी भीड़ हो जाती है। 2015 में बिहार में एक और एम्स बनने के लिए प्रस्ताव दिया गया था लेकिन 2019 तक वहां इसके लिए जमीन ही नहीं मिल पाई। जमीन की तलाश का काम राजनीतिक जाल में फंस कर रह गया । प्राथमिक स्तर पर 6000 लोगों की और एम्स में खाली पड़े 467 पदों को लेकर टूटी हुई कमर के साथ आंगनबाड़ी व्यवस्था तथा दूसरे एम्स के लिए जमीन नहीं मिल पाने इत्यादि को देखते हुए लगता है कि बिहार स्वास्थ्य व्यवस्था इंतजार में पथरा गई है। हाल में बच्चों की मौत सरकार के लिए खतरे की घंटी है जिससे सरकार को जाग जाना चाहिए । अगर नहीं जाग सकी सरकार तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था जो अभी बीमार है वह कल हो सकता है वेंटिलेटर पर चली जाए। लेकिन मामला दूसरा बिहार सरकार प्रदर्शन कर रहे पीड़ितों के परिवार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने में जुटी है।
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