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Sunday, June 9, 2019

कांग्रेस का संकट केवल परिवार ही नहीं है 

कांग्रेस का संकट केवल परिवार ही नहीं है 

कांग्रेस के समक्ष फिलहाल दो चुनौतियां हैं हालांकि दोनों पूरी तरह असंबद्ध नहीं हैं। पहला तो है कि यह अयोग्य परिवार पर निर्भर है। 2007  में जब राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस की बागडोर संभाली थी तो उनका घोषित लक्ष्य था पार्टी के कामकाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था लाना। वे इस लक्ष्य को पूरा करने में बुरी तरह असफल हो गए। वे पार्टी में नई प्रतिभाओं को सामने नहीं ला सके। यह उनकी असफलताओं में पहली असफलता थी। परिवार के लोगों को ही पार्टी का वारिस बनना कांग्रेस के लिए कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। यह भारत और दक्षिण एशिया के राजनीतिक संगठनों में प्रचलित है। नरेंद्र मोदी बड़ी ही चतुराई और सफलता से लोगों के मन में यह बात बिठा दी कि भारत में सारी समस्याओं के मूल में , चाहे वह सत्य हो काल्पनिक ,नेहरू- गांधी परिवार ही  है। लेकिन, गौर करें कि भारतीय जनता पार्टी में भी परिवारवाद चलता और ये परिवार बड़ी शांति से अपने लिए  अपने चतुर्दिक छोलदारियों खड़े कर रहे हैं। 
  कांग्रेस के सामने और दुनिया भर की जो बड़ी पार्टियां हैं उनके सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह है पहचान की राजनीति की उभार। अमरीका में 2009 में जब बराक ओबामा और की विजय पर गौर करें भारत में अधिक जनादेश के साथ कांग्रेस सत्ता में आई तो ऐसा लगा कि दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद पर उदारवाद तथा समावेशी राजनीति की विजय हुई है।लेकिन 2016 के बाद देखने में आ रहा है कि नस्लवादोत्तरअमरीका का ओबामा का सपना चूर - चूर हो गया है। डोनाल्ड ट्रंप ने श्वेत समुदाय को एक जुट कर जनादेश हासिल किया। ट्रैम्प ने पूर्वर्ती अफ्रीकी-अमरीकी राष्ट्रपति की कामयाबियों के हर दस्तखत मिटा दिए। ठाब जो वहां 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के प्राथमिक अभियान चल रहे हैं वह साफ बताते हैं कि वह लैंगिक और जातीय पहचानों पर केंद्रित है। 
     जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसकी 2009 की विजय ने गिरते वोट प्रतिशत पर एक नकाब दाल दी।1989 में कांग्रेस को 39.53% वोट मिले थे जो 2009 में घाट कर 28.55% हो गए। कांग्रेस के वोटों में लगातार गिरावट और उसी के समानांतर जातीय, धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय पहचानों के आधार पर दल गठित होते गए।इस प्रक्रिया ने कांग्रेस को पहचान के आधार पर दो हिस्सों में तोड़ना आरम्भ कर दिया। मुस्लिम वोटरों के अलावा जो उदारवादी हिन्दू वोट थे वे दो हिस्सों में टूटने लगे। इनमें  पहला  था हिन्दू मतों से अपील के बाद से एकजुट हुआ हिस्सा और दूसरा था हिन्दू समाज के भीतर कुछ खास समुदायों का हिस्सा।  यह हिस्सा वी पी सिंह के काल में तेजी से उभरा था। भारतीय जनता पार्टी ने इस स्थिति का लाभ उठा उसने मुस्लिम वोट बैंक के नाम से ईर्ष्या और नफरत फैलाना आरम्भ कर दिया।
       2014 और 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने गैर यादव अन्य पिछड़े दलों को भाजपा के बहुलतावादी-राष्ट्रवादी विचारों की ओर आकर्षित कर अपने झंडे ठाले एकत्र कर लिया। इसने सर्वभारतीय स्तर पर एक हिन्दू वोट बैंक का सपना पूरा कर दिया।  आंकड़े बताते हैं कि 2019 के चुनाव में भाजपा को सवर्ण हिंदुओं के 55% वोट मिले थे जबकि हिन्दू ओ बी सी के 44%,हिन्दू दलित के 34% और हिंदी आदिवासी समुदाय के 44% वोट मिले थे। इसके अलावा 8% मुस्लिमों ,11% ईसाइयों और 11% सिखों के भी वोट मिले थे। इससे पता चलता है कि पिछले लंबे अरसे से हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षवादी राष्ट्रीयता में जो रस्साकशी चल रही थी उसमें धर्मनिरपेक्षवादी राष्ट्रीयता कमजोर  पड़ने लगी। कमजोर पड़ने वाले पक्ष का झंडा कांग्रेस ने उठाया रखा था। यहां आकर अमर्त्य सेन का वह कथन सही नहीं प्रतीत होता है कि " हिन्दूराष्ट्रवाद के दर्शन की कोई खास फतह नहीं हो पा रही है नाही गांधी, नेहरू और टैगोर के समावेश थता एकता के विचार पराजित नहीं हो रहे हैं।" भाजपा ने ना केवल सत्ता का संघर्ष ही जीता बल्कि विचारों का संघर्ष भी जीत लिया। अमर्त्य सेन यहां चूक गए उन्होंने  संघ परिवार राष्ट्रीयता के विचारों को कम करके आंका। उन्होंने उस परिवर्तन का आकलन नहीं किया जो देशभर में वामपंथी दलों में हुआ ।यह परिवर्तन कुछ उसीतरह था जैसा अमरीका में पहचान की राजनीति के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी में हुआ। वामपंथ का भारत के राष्ट्रवाद के प्रति विचार धीरे धीरे खत्म हो गया। यहां एक नात उठती है कि क्या कांग्रेस किसी ऐसे करिमायी और प्रतिभाशाली नेता को सामने ला सकती है जो दिलोदिमाग की इस जंग को जीत सके, जो न केवल हिंदुत्व का मुकाबला कर सके बल्कि नववामपंथ को भी  पराजित कर सके। नव वामपंथ का यह मानना है कि गांधी, नेहरू और टैगोर की समावेशी नीति और एकता के विचार केवल उच्चवर्ग के वर्चस्व को बढ़ाते हैं।
दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद की लहर बेशक घटेगी  लेकिन तब तक  सभी तरह की राजनीति पहचान की राजनीति में बदल जाएगी और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां और उसके विचार निष्क्रिय हो जाएंगे।

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