ये सूरत बदलनी चाहिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को लोकसभा में बिहार के चमकी बुखार पर कहा कि यह चिंता जनक है और इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए । उन्होंने झारखंड मॉब लिंचिंग पर भी चिंता जताई। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों के आंकड़ों पर बिहार सरकार को जमकर डांटा। इसने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि वह 10 दिनों में बिहार में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति ,पोषण, सफाई इत्यादि पर शपथ पत्र दाखिल करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा ,यह बुनियादी अधिकार हैं। लेकिन मीडिया या समाज का जो मनोविज्ञान है उसके अनुसार ऐसा लगता है इन 10 दिनों में हम उन बच्चों की मौत को भूल जाएंगे। कुछ पत्रकार बंधु इस बात को लेकर दौड़ पड़ेंगे कि बिहार सरकार ने शपथ पत्र दाखिल किया या नहीं, और अगर किया है तो उसने राज्य में स्वास्थ्य सेवा के बारे में क्या कहा है। ऐसा लगता है कि उस समय तक समाचार कई और बन जाएंगे और संभवतः मामले में दूसरे होंगे।
याद करें पिछले हफ्ते कोलकाता में डॉक्टरों के साथ मारपीट हुई। क्या उसका कुछ निदान हुआ ? क्या ऐसा हो सकता है कि दोबारा भारत में डॉक्टरों से मारपीट ना हो? अब तो ऐसा लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। डॉक्टर काम पर चले गए और सोशल मीडिया में किसी दूसरे मसले पर हाय तौबा मची हुई है। इस तरह की स्थितियां और उनकी अवधि ही बहुत छोटी होती है। समाज विज्ञान की भाषा में इसे "मोरल पैनिक" कह सकते हैं। अभी तक समाज विज्ञानी यह नहीं स्थापित कर पाए हैं कि एक दूसरे से ऐसी घटनाओं का क्या संबंध होता है और यह जन नीति को कैसे प्रभावित करती हैं। राजनीतिज्ञ और अफसर उन मसलों पर ज्यादा तेजी दिखाते हैं जो बहुत तूल पकड़ने वाले होते हैं और उनकी तरफ से आंख मूंद लेते हैं जो मामूली असरदार होते हैं। अभी हाल की कुछ घटनाओं पर ध्यान दें। मी टू से लेकर और मॉब लिंचिंग तक क्या बदला हमारे देश में? क्या इसके बाद ज्यादा जागरूकता फैली या इसे रोकने के लिए सरकार ने कोई नई नीति बनाई ? बहुत ज्यादा प्रसारित होने और लोगों का ध्यान आकर्षित हो जाने के बावजूद कोई बदलाव नहीं होता है या फिर बहुत ही मामूली बदलाव होता है। अमर्त्य सेन के सिद्धांत के अनुसार नीतियों से परिवर्तन बहुत धीमा होता है लेकिन जनता का ध्यान बहुत तेजी से आकर्षित होता है।
इस तरह की कई घटनाएं अपना स्वरूप बदल-बदल कर सामने आती हैं। अभी झारखंड में मॉब लिंचिंग की घटना तेजी से उभरी है। यहां तक कि लोकसभा में प्रधानमंत्री ने भी इस पर चिंता जताई है। जून में इस तरह की कई घटनाएं हुईं। सही संख्या किसी को मालूम नहीं है। 25 जून को आर एस पी के कोल्लम से सांसद एन के रामचंद्रन के एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री ने बताया कि "नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ऐसा कोई आंकड़ा नहीं संग्रहीत करता है इसलिए इस बारे में सही जानकारी मुश्किल है।" क्या विडंबना है? अल्प पर संख्या का हमला और केवल शक के आधार पर जान लिया जाना यानी सजा दे देना कहां तक मुनासिब है? इन घटनाओं के आंकड़ों के बारे में सरकारों को कुछ मालूम नहीं है, ना राज्य सरकार को न केंद्र सरकार को और ना इसके लिए तैनात नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो को? एक हुड़दंगी भीड़ आनन-फानन में फैसला कर देती है। 26 जून को भाजपा के एक बड़े नेता के सुपुत्र ने नगर निगम के अधिकारियों को बीच सड़क पर बल्ले से मारा उनके साथ उनके समर्थकों का एक बड़ा जत्था भी था सभी खामोश थे और परोक्ष रूप में उनकी मदद कर रहे थे। इस तरह की अदालतें सिर्फ सड़क पर नहीं लगतीं। सोशल मीडिया पर वायरल होती खबरें आनन-फानन में झूठ और सच का फैसला कर देती हैं।
कुछ लोग दलील दे सकते हैं डेढ़ अरब की आबादी वाले इस देश में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती हैं तो इसके लिए पूरे देश या पूरी सरकार पर उंगली उठाना उचित नहीं है। लेकिन ,अगर इन घटनाओं का आप अपराध वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे तो इनमें एक कड़ी दिखाई पड़ती है। अगर साफ कहा जाए तो इनके प्रभाव सियासी परिणामों को प्रभावित करते हैं। 26 जून को बिहार के चमकी बुखार पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इस बीमारी पर राजनीति नहीं होनी चाहिए । यह बयान प्रमाणित करता है कि ऐसी घटनाओं का राजनीतिक प्रतिफल भी हुआ करता है। इन घटनाओं में एक और बड़ी खूबी है। इन पर सत्ता की प्रतिक्रिया बहुत देर से आती है और ऐसा होना एक तरह से देर से मिले इंसाफ यह तरह होता है। जैसे देर से मिला इंसाफ अन्याय है उसी तरह से इस पर सत्ता के बयान में देरी भी बेअसर है । कट्टर राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलना किसी भी देश के सामाजिक ताने-बाने पर आघात है।
जिस देश ने दुनिया को धर्म और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया आज दुनिया उसी देश को धार्मिक आजादी के लिए लेक्चर दे रही है। हाल में अमरीका की सरकार ने भारत में धार्मिक आजादी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ते हमलों पर एक रिपोर्ट निकाली थी और भारत सरकार ने उसका स्पष्ट खंडन कर दिया। लेकिन ऐसा करने से कुछ बदला नहीं । अमरीकी विदेश मंत्री पॉम्पियो बुधवार को भारत आए और वह अवांतर से वही राग अलाप रहे हैं। उन्होंने कहा, " भारत चार धर्मों की जन्मस्थली है । आइए सब की धार्मिक आजादी के लिए एक साथ उठ खड़े होते हैं।" 26 जून को झारखंड में मॉब लिंचिंग के खिलाफ देश के कई शहरों में प्रदर्शन हुए। क्या कोई सुन रहा था फिर भी यह प्रशंसनीय प्रयास है कम से कम लोग एक साथ बोलने के लिए उठ तो खड़े हुए हैं
खामोशी तेरी मेरी जान लिए लेती है
अपनी तस्वीर से बाहर तुझे आना होगा
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