रोजगार के आंकड़ों का जोड़ जमा
सामयिक श्रमिक बल ( पीरियोडिक लेबर फोर्स) के आंकड़े आ गए हैं। इन आंकड़ों में जो जानकारियां दी गईं हैं उन्हें देखने के बाद कई तरह के सवाल उठते हैं। खास कर बेरोजगारी की बढ़ी हुई दरें। आंकड़ों के मुताबिक 2011-12 में 1.7 प्रतिशत बेरोजगारी थी जो 2017 -18 में बढ़ कर 5.8 प्रतिशत हो गयी इनमें अगर और गहराई से देखें तो ग्रामीण पुरुषों में बेरोजगारी की संख्या 3.0% और शहरी पुरुषों में यह 7.1 प्रतिशत है। अगर बेरोजगारी और रोजगार के आंकड़ों के साथ सरकार की नीतियों को नहीं उलझाया जाय तो इसके कई पृथक निष्कर्ष निकलेंगे। इनमें कुछ ऐसे तथ्य आभासित हो रहे जिनको ध्यान में रख कर नीतियां तैयार की जायँ तो ज्यादा कल्याणकारी हो सकती हैं। हमारे देश बेरोजगारी की दर को खराब अर्थ व्यवस्था , स्कूलों, कालेजों में छात्रों की बढ़ती संख्या का प्रतिफल माना जाता है। यह विचार एक गलत तथा भ्रामक तस्वीर पेश करता है।यही नहीं बेरोजगारी के आंकड़ों में उन नौजवानों की गिनती होती है जो ऊंची तालीम हासिल कर बड़ी- बड़ी नौकरियों के लिए दौड़ते फिरते हैं। वे बड़ी नौकरियों के इंतजार में बेरोजगार बैठे रहते हैं। जिनके अलावा सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी स्तर भी बेरोजगारी की समस्या सामने आती है और शिक्षा का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है बेरोजगारी की चुनौतियां भी बढ़ती जाती हैं। इन स्थितियों से निष्कर्ष निकलता है कि बेरोजगारी की चुनौतियां शिक्षा में विकास के साथ बढ़ीं हैं । देश में शिक्षा विकास तो हो गया पर उस अनुपात में रोजगार के औपचारिक क्षेत्रों का विकास नहीं हुआ।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों में प्रस्तुत बेरोजगारी और सामयिक श्रमिक बल सर्वेक्षण को अगर देखें तो पता चलेगा कि बेरोजगारी की दर की गणना बेरोजगारों की संख्या से श्रमिक बल की संख्या की तुलना कर की जाती है। इसमें उनलोगों की गणना नहीं होती जो लोग श्रमिक बल से अलग हैं जैसे छात्र, घर में काम करने वाले या विकलांग। श्रमिक वर्ग से बाहर की आबादी का अनुपात कमोबेश हमेशा समान रहता है। बेरोजगारी की दर रोजगार की स्थितियों में परिवर्तन का अच्छा सूचक है। पिछले दशक में शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने वालों के अनुपात भारी परिवर्तन हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का तेजी से विस्तार हुआ है। इन क्षेत्रों में 15-19 वर्ष के किशोरों के स्कूलों में दाखिले का अनुपात 2011-12 से 2017-18 के बीच 64% से 72% तक बढ़ा है। जबकि इसी अवधि में इसी उम्र के बेरोजगारों का अनुपात 3%से बढ़ कर 6.9% हो गया है। यानी बेरोजगारों की तादाद दोगुनी हो गयी जबकि बेरोजगारी 9% से 27% हो गयी। ग्रामीण क्षेत्रों के 30-34 वर्ष के आयु वर्ग के बेरोजगारों का अनुपात और बढ़ा है।यह अनुपात 1% से बढ़ कर 2.3% हो गया है जबकि इसी क्षेत्र के 20-24 वर्ष के युवकों में बेरोजगारी का अनुपात 4.6% से 16.1% हो गया है। यहां यह गौर करने की बात है कि भारत में अनौपचारिक क्षेत्र का वर्चस्व है और ऐसे में बेरोजगारी केवल इस कारण है कि उन नौजवानों के परिवार उनकी कमाई के बगैर भी चल जाता है।25 साल के उम्र के नौजवान औपचारिक क्षेत्रों में काम के लिए आवेदन करते रहते हैं और उनके मां-बाप उनका खर्च चलाते हैं।
नौजवानों की बेरोजगारी ऐसे समय में बढ़ी है जब शिक्षा का व्यापक विस्तार हुआ है। इससे यह जाहिर होता कि भारत की बेरोजगारी का मूल इसकी सफलता में निहित है। शिक्षा के विस्तार का बेरोजगारी पर प्रभाव पड़ता है । संपन्नता में वृद्धि के लोभ में नौजवान अच्छी नौकरियों की प्रतीक्षा करते रहते हैं फलतः बेकारी बढ़ती जाती है। जब इससे हार जाते हैं तो कोई भी नौकरी स्वीकार करने के लिए कदम बढ़ाते हैं या फिर खेती-बाड़ी में लग जाते हैं छोटी-मोटी दुकान खोल लेते हैं। शिक्षा के विकास और प्रसार के साथ बढ़ती बेरोजगारी हमें आंकड़ों से हट कर दूसरे मुद्दों पर सोचने के लिए विवश करती है।
आधुनिक भारत बेहद आकांक्षापूर्ण है। कि वर्षों के आर्थिक अवरोध के बाद देश में आकांक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ गईं हैं। मां बाप अपने बच्चों को पढ़ाने में सब कुछ लगा देते हैं। बच्चे भी चाहते हैं खूब पढ़ कर कमाना इससे अच्छी नौकरियों में प्रतियोगिता बाद बढ़ती जाती है। एक-एक नौकरी के लिए हजारों नौजवान कतार में खड़े मिलते हैं। भाजपा को प्राप्त जनादेश उसे इस बाद कि शक्ति देता है कि आधुनिक भारत में उतपन्न चुनौतियों का मुकाबला करे। रोजगार का सृजन एक बहुत बड़ी चुनौती है।
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