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Tuesday, February 18, 2020

फौज में महिलाओं को बराबर का हक

फौज में महिलाओं को बराबर का हक 

महारानी लक्ष्मी बाई , दुर्गावती और लक्ष्मी सहगल के इस मुल्क में फौज में बराबरी का दर्जा हासिल करने के लिए महिलाओं को 17 बरस लंबी कानूनी लड़ाई से जूझना पड़ा। तब कहीं जाकर बराबरी का दर्जा हासिल हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने सेना में लैंगिक भेदभाव को खत्म करते हुए सोमवार को अपने अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि इस सभी पात्र महिला अफसरों को 3 महीने के भीतर सेना में स्थाई कमीशन दिया जाए। अदालत ने केंद्र की दलील को निराशाजनक बताया। जिसमें महिलाओं को कमांड पोस्ट ना देने के पीछे शारीरिक क्षमताओं और सामाजिक मानदंडों का हवाला दिया गया था। अभी तक थल सेना में 14 वर्ष तक सेवा देने वाले पुरुष अफसरों को ही स्थाई कमीशन के बारे में पात्र माना जाता था। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर  महिला अधिकारियों के आदेश लेने को तैयार नहीं होंगे लेकिन अदालत ने इसे खारिज कर दिया।
      सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां महिलाएं सेना में कमांडिंग पोजीशन में है अगर इतिहास की बात करें तो दूसरे विश्व युद्ध में सैनिकों को शुरू हुई तो बहुत से देशों में औरतों को सेना में शामिल करना शुरू किया। लेकिन इनमें सिर्फ सोवियत संघ ही एक ऐसा मुल्क था जिसने मैदाने जंग में महिलाओं को उतारा था। हालांकि सोवियत संघ के विघटन के बाद वहां भी अब महिलाओं को युद्ध में लड़ने की इजाजत नहीं है। दुनिया भर में  80 के दशक के बाद  महिलाओं की प्रशासनिक और सहायक भूमिका में बड़ा बदलाव 21वीं सदी की शुरुआत में हुआ। जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और शांति औरतों की समान भूमिका का प्रस्ताव किया यह वही वक्त था जब 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था और उसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने अफगानिस्तान और इराक में सेना भेजी थी। इन सेनाओं में औरतों की खास टुकड़ियां थी। जिन्हें फीमेल इंगेजमेंट टीम कहा जाता था। अमेरिका और ब्रिटेन में औपचारिक रूप से औरतों को युद्ध में शामिल होने की इजाजत नहीं थी पर युद्ध की आवश्यकता ही कुछ ऐसी थी कि उनकी टीम शामिल हुई और करीब डेढ़ सौ औरतों की युद्ध में जान गयी। अमेरिका में यह औपचारिक इजाजत 2013 में दी गई। 2016 में ब्रिटेन ने की औपचारिक इजाजत दे दी। कुछ ऐसे देश हैं जहां युद्ध में औरतों को हिस्सेदारी देने की असल वजह उदारवादी सोच है। दुनिया में मर्द और औरतों की बराबरी के मामले में सबसे आगे आने वाले स्कैंडिनेवियन देश नार्वे, फिनलैंड और स्वीडन में भी इजाजत है। 2018 में नैटो में शामिल स्लोवेनिया एकमात्र ऐसा देश बना जिसने एक महिला को देश के सुप्रीम कमांडर के रूप में नियुक्त किया। फ्रांस में महिलाएं पनडुब्बियों और दंगा नियंत्रण दल को छोड़कर वहां की सेना सभी क्षेत्रों में   सेना में सेवा देती हैं।
     सरकार ने इस फैसले के पूर्व सुप्रीम कोर्ट में तरह-तरह की दलीलें पेश की थी परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे नहीं माना कोर्ट का कहना था कि खेसारी दलीलें बताती हैं की माइंडसेट यानी सोचने के तरीके को बदलना होगा ताकि सेना में सच्ची बराबरी हासिल हो सके। अदालत ने सभी भेदभाव को खत्म कर दिया। अब महिला सैनिक अफसर सभी मोर्चों के कमांड पोस्ट पर तैनात की जा सकेंगी। इसका अर्थ महिलाएं एवं सभी तरह की ट्रेनिंग भी हासिल कर सकती हैं। जिससे उन्हें विभिन्न मोर्चों पर तैनात किए जाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। हालांकि सेना ने आधिकारिक तौर पर इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की है लेकिन फैसले के कुछ ही घंटों के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसका स्वागत किया। अब इस फैसले का जो प्रभाव पड़ेगा उसे मानव संसाधन विभाग तथा सेना के मानव संसाधन प्रबंधन विभाग को  झेलना है। अब इस संबंध में उसे अपनी नीति बदलनी होगी। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव सेना की संस्कृति उसके नियमों ,पदों के मूल्यों इत्यादि में आएगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से अब किसी को कुछ नहीं करना है क्योंकि यह बाध्यता मूलक है।


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