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Saturday, February 29, 2020

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है 

1857 के गदर के बाद जब व्यापक पैमाने पर दिल्ली में गिरफ्तारियां शुरू हुई और दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। मशहूर शायर मिर्जा गालिब को जब गिरफ्तार किया गया और उससे ब्रिटिश पुलिस ने पूछा वह हिंदू है या मुसलमान तो मिर्जा गालिब ने जो जवाब दिया उसके मायने बहुत गंभीर थे। गालिब ने उत्तर दिया कि वह दोनों है। यानी उसने संकेत दिया  की  समाज को बांटने की कोशिश की जा रही है  उसे रोका जाना चाहिए।  पुलिस व्यवस्था   अंग्रेजों की थी  इसलिए वह निष्क्रिय रही और कुछ नहीं हो सका।  दंगे भड़क गए। उस समय से आज तक कई बार दिल्ली पुलिस के शासन और संचालन पर उंगलियां उठीं । सबसे ताजा घटना शाहीन बाग में जलती मोमबत्तियां के बीच दहकती दुकानें और धुआंती बस्तियों- घरों ,जलते हुए दूध की बदबू और नालियों के किनारे पड़ी लाशें और इन सब को रोकने के लिए बनाई गई पुलिस व्यवस्था संज्ञाशून्य नजर आई। बाद में पता चला की इसके पीछे राजनीति थी। राजनीति और धर्म के गठजोड़ और उसके घातक नतीजों की  भर्त्सना जरूरी है। इसके साथ ही दिल्ली पुलिस व्यवस्था के शासन की समीक्षा भी। आने वाले दिनों में पुलिस के इस रवैये पर जांच आयोग बैठेगा। लेकिन इस बात को लेकर तू-तू  मैं-मैं बढ़ जाएगी और राजनीति से पूरी घटना को सांप्रदायिक रंग दे दिया जाएगा।
     दिसंबर महीने से सी ए ए और एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन करने वालों ने दिल्ली के कई स्थानों पर धरने दिए और अंत में शाहीन बाग में आकर व धरना एक बड़े स्वरूप में बदल गया। पूरे देश में विरोध का टेंपलेट बन गया। यह धरना और प्रदर्शन एक तरह से देशभर के विरोध प्रदर्शनकारियों के लिए उदाहरण बन गया। यहां यह स्पष्ट है कि राजधानी की पुलिस निष्क्रिय बैठी रही और उसने अपनी ही जनता के खिलाफ होने वाली हिंसा करना तो आकलन नहीं किया और ना उसे रोकने की कोशिश की। दिल्ली पुलिस की सबसे बड़ी विपदा है कि वहां कोई भी सरकार हो पुलिस व्यवस्था केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के तहत आती है।  यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है। आलोचक और विपक्षी नेता पुलिस को भला बुरा कहने  के साथ हीकेंद्र सरकार की आलोचना करते हैं और उसे अक्षम साबित करने की कोशिश करते हैं । यह समस्या का समाधान नहीं है। इसके लिए जरूरी है की शासन निष्पक्ष हो।
    1947 की घटना इतिहास में दर्ज है। जब दंगाइयों ने खून खराबा शुरू किया तो सरदार पटेल ने बिल्कुल निष्पक्षता से उन पर कार्रवाई की। उन्होंने नहीं पूछा कि कौन किस जाति का है। वह अपना प्रशासनिक दायित्व निभाते रहे। जिसके चलते जनता का भरोसा सरकार पर कायम हुआ और स्थिति संभल गई। इसलिए शांति बनाने के लिए जरूरी है कि प्रशासन और कानून पर लोगों का भरोसा कायम होना चाहिए। लोगों में आपसे विश्वास बहुत जरूरी है।
       लेकिन यहां सबसे बड़ा खतरा पारस्परिक विश्वास का है। किसी भी लोकतंत्र में तीन स्थितियां महत्वपूर्ण होती हैं। पहली, जनता में पारस्परिक विश्वास, दूसरी पुलिस व्यवस्था पर भरोसा और तीसरी शासन की निष्पक्षता। दिल्ली दंगों के दौरान दो चीजें स्पष्ट देखने को मिली।  पारस्परिक विश्वास को खत्म करने की साजिश  और दूसरे पुलिस की निष्क्रियता। राजनीतिक दल से संबंधित एक व्यक्ति ने दंगों का सामान मुहैया कराया और दंगे जब आरंभ हुए तो पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही। ना इस पर किसी नेता ने और ना ही सरकार ने ध्यान दिया कि यह एक बहुत बड़ी साजिश है। इस साजिश में सबसे बड़ा खतरा बहुसंख्यक समाज को भयानक स्वरूप देने का है। इस उद्देश्य के लिए कई स्तरों पर कई तरह के संचार तंत्रों का उपयोग किया गया। जो समुदाय निशाने पर था उसे पहले किसी भी तरह से बदनाम करने की कोशिश की गई। जैसे शाहीन बाग वाली घटना के दौरान एक महीने से ज्यादा वक्त तक सांप्रदायिक नफरत  का माहौल बनाया गया और उसके बाद हमले शुरू हो गए । सरकार चुपचाप देखती रही। उसने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की नफरत की आग धीरे-धीरे सुलग रही है। उसमें घी कौन डाल रहा है। सरकार का इतना बड़ा खुफिया तंत्र है ,इतनी बड़ी व्यवस्था है सब चुपचाप रहे देखते रहे। एक ऐसी साजिश थी जो व्यापक नरसंहार में बदल सकती थी अगर बहुसंख्यक समुदाय के कुछ लोग आगे नहीं आए होते और इस खून खराबे को उन्होंने रोका नहीं होता। दूसरे दिन जब सरकार जागी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लेकिन नरसंहार रुक गया। यह सरकार की सफलता कही जाएगी फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है ।
   यह देश के दूसरे हिस्से में ना भड़के। सबसे बड़ा खतरा कोलकाता में नजर आ रहा है। सरकार को अपनी व्यवस्था चुस्त करनी चाहिए। क्योंकि वहां शाहीन बाग एक पर्दा था यहां पर्दे नहीं है लेकिन कुछ दीवारों के पीछे कुछ कुछ सुलग रहा है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
  मोहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है


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