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Monday, February 3, 2020

आने वाले दिन और भी मुश्किलें पैदा कर सकते हैं

आने वाले दिन और भी मुश्किलें  पैदा कर सकते हैं

एक पखवाड़े पहले ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें दुनिया भर में अमीर और गरीब आबादी के बीच का फर्क दिखाया गया था। इस रिपोर्ट ने दुनियाभर के नीति निर्माताओं को सकते में डाल दिया। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में अमीरों की संख्या बढ़ी है और गरीबों की घटी है। एक आम आदमी यह सुनकर हक्का-बक्का रह सकता है कि दुनिया में केवल 62 ऐसे लोग हैं जिनके पास इतनी ज्यादा दौलत है जितनी कुल मिलाकर इस धरती पर मौजूद आबादी के आधे सबसे गरीब लोगों के पास  नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो 62  लोग जो एक बड़ी बस में समा सकते हैं उनके पास इतनी दौलत है जितनी दुनिया के साढे 3 अरब लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है। आप कह सकते हैं कि यह कौन सी नई बात है ? तो क्या यह नहीं पूछेंगे कि विकास और तरक्की के दावे सिर्फ कुछ लोगों को अमीर बनाने के लिए हैं। गरीब अगर गरीब हुआ तो यह चिंता की बात नहीं है क्या अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना समाज या आम लोगों के लिए चिंता की कोई बात नहीं है? ऑक्सफैम  की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का हर तीसरा आदमी भारी गरीबी में जी रहा है और ऑक्सफैम की  कोशिश लोगों की सामूहिक शक्ति को जुटाकर गरीबी भुखमरी के खिलाफ मुहिम करना है। इस सिलसिले में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर नीतियों को प्रभावित करना है ताकि गरीबी कम हो।  2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार बीटन को मिला था उनके शोध के अनुसार गरीबी और अमीरी की असमानता की ओर दुनिया को देखना चाहिए। जब ज्ञान और टेक्नोलॉजी का विस्तार हो रहा है तो आखिर गरीबी क्यों बढ़ रही है? इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।
  ये आंकड़े एक गंभीर समस्या की ओर इशारा करते हैं, जो   ही यह भी बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सामने आए और इसका समाधान करे, ताकि दूरगामी आर्थिक विकास हो सके। भारत आर्थिक असमानता के लिए कई तरह से बदनाम है।  सुनकर हैरत होगी कि भारत के शीर्ष तकनीकी सीईओ को जितना 1 वर्ष में वेतन मिलता है उतनी दौलत कमाने में  घरेलू कामकाज करने वाली एक महिला को 22 हजार 277 वर्ष लगेंगे ।
        इस पर लगातार बहस होती है दुनिया के हर मंच पर बहस होती है कि विकास हो। लेकिन विकास का अर्थ क्या है? यहां सबसे जरूरी है आज के नौजवान के लिए इस असमानता का भविष्य में क्या अर्थ होगा यह समझना। अगर ऑक्सफैम रिपोर्ट कोई संकेतक है तो इसका मतलब है कि असमान वर्तमान और ज्यादा  असमान भविष्य का सृजन करेगा। इसमें भारतीय समाज की क ई विफलतायें भी शामिल हैं। वैसे  असमानता का यह भार महिलाओं को ज्यादा बर्दाश्त करना पड़ता है। उन्हें लगातार देखरेख और खर्च के बोझ से निपटना पड़ता है। अगर आंकड़ों को देखें तो महिलाओं को रोजाना 352 मिनट इस देखरेख के कार्य में लगाने पड़ते हैं। जबकि, पुरुषों को केवल 51.8 मिनट लगाने होते हैं। यही नहीं इन दिनों समाज कल्याण के काम बहुत कम देखे जा रहे हैं। समाज कल्याण के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह किसी निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए हो रहा है। गैर बराबरी के चलते देश में समाज कल्याण पर खर्च बहुत तेजी से घट रहा है और सकल घरेलू उत्पाद का केवल 5% स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च हो रहा है।
         महिलाओं को घरेलू देखरेख के लिए कोई पैसा नहीं मिलता है। यही नहीं अधिकांश महिलाओं को कामकाज करने की अनुमति भी नहीं मिलती है। श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी के बारे में एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 2017 -18 में बड़ी तेजी से इसमें गिरावट आई है और अब केवल 16.5% ही रह गई है । इतना ही नहीं  बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है यह चिंता का विषय है। क्योंकि, बहुत कम महिलाएं श्रम शक्ति में अपनी भूमिका निभा रही हैं। जो पहले  थी भी वह इन दिनों बेकार हो गई हैं एक ऐसे समय में जब महिला और पुरुष की धन के बीच समानता को खत्म करने की कोशिश हो रही है और महिलाओं की आमदनी बढ़ाने का प्रयास चल रहा है वैसे में ऑक्सफैम की यह रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को कम मजदूरी मिलती है और रोजगार भी कम मिलता है
      रिजर्व बैंक  के आंकड़े बताते हैं की 2019 में लोगों में घर खरीदने की क्षमता तेजी से घटी है इससे पता चलता है की लोग किराया के मकान में रह ले रहे हैं क्योंकि यह माई की बढ़ी हुई दर देने का सामर्थ्य में खत्म होता जा रहा है इस स्थिति का प्रभाव देश के आर्थिक विकास पर पड़ रहा है। विगत 15 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था इस असमानता को इसी प्रकार झेलती रही है। किंतु अब असमानता सीमा पार कर चुकी है । आंकड़ों के मुताबिक देश की 75% महिलाएं जो काम करती हैं उनकी औसत आमदनी ₹20000 है। साथ ही 60% दिहाड़ी पर काम करने वाली महिलाएं केवल ₹5000 कमा पाती हैं। इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।  यहां तक कि जो लोग कमाते हैं वह भी इतना नहीं कमा पाते कि राष्ट्रीय व्यय चक्र को संभाल सकें। अभी जो समाजिक  और छात्र विरोध चल रहा है उसके मूल में यही आर्थिक असमानता भी एक कारण है। आर्थिक मंदी के कारण समस्याएं और तनाव बढ़ते जा रहे हैं। लोगों को यह बताना जरूरी है कि यह मामला अर्थव्यवस्था का है। समाजिक खर्चों में वृद्धि कर और देखरेख के काम में प्रवृत्तियों को परिवर्तित कर अच्छे वेतन की  अगर व्यवस्था हो सके तो इस उद्देश्य की ओर यानी संदेश में शांति बढ़ावा देने और तनाव घटाने के उद्देश्य की ओर बढ़ा जा सकता है। इससे केवल वर्तमान प्रभावित नहीं हो रहा है हमारा आने वाला कल भी इससे प्रभावित होगा और देश के सामने अन्य कई समस्याएं उत्पन्न होंगी।


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