जब से कोरोना वायरस की महामारी अपने देश में फैली है तब से इस बीमारी के अलावा दो सबसे ज्यादा खबरें आ रही हैं। पहली खबर समाज में हिंसक घटनाओं की और दूसरी प्रवासी मजदूरों के लौटने की। हिंसक घटनाओं के कारण चाहे जो हों मजदूरों का लौटना देश के विकास और अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बॉडी लैंग्वेज और उनकी बातचीत से साफ जाहिर होने लगा है कि यह लौटना हमारे देश के लिए कितना चिंताजनक है। अगर समाज वैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो इसे गंतव्य से स्रोत तक लौटना कह सकते हैं। हजारों मजदूरों को अपने घरों की ओर लौटते देखना सचमुच हृदय विदारक हैं। क्योंकि यह सबको मालूम है कि जहां जा रहे हैं वहां इनके लिए या तो काम नहीं है और है भी तो इतना कम है कि वह बस किसी तरह जी लें। जो आंकड़े उपलब्ध हैं वह हकीकत से दूर हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में रोजगार के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले मजदूरों की संख्या 45 करोड़ है। यह संख्या 2001 में दायर जनगणना से 30% ज्यादा है। लेकिन, सच्चाई कुछ दूसरी है। आंकड़े में दी गई संख्या से सही संख्या बहुत ज्यादा है। जमीनी हकीकत तो यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश से 45 करोड़ के आसपास मजदूर बाहर जाते हैं और इसके बाद मध्य प्रदेश पंजाब राजस्थान उत्तराखंड पश्चिम बंगाल और जम्मू कश्मीर से मजदूर रोजगार की तलाश अपने घरों से बाहर निकलते हैं। इनका गंतव्य जिन राज्यों में होता है वह हैं दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश और केरल। इधर हाल के वर्षों में कुछ और राज्यों में ऐसे कार्य हो रहे हैं जिनसे प्रवास की दिशा बदल रही है खास करके छोटे और मझोले शहरों की ओर, जिनकी आबादी लाखों में हैं। प्रवासी कौन है इसकी अभी तक सही सही परिभाषा नहीं गढ़ी गई है। यह मान लिया गया है कि जन्म स्थान या पूर्व स्थाई आवास स्थान को छोड़कर रोजगार के लिए बाहर जाना प्रवास है। लेकिन इसे बिल्कुल सही नहीं माना जा सकता है। सवाल है कि यह मजदूर अपने अपने गांव घरों को छोड़कर सैकड़ों किलोमीटर दूर आखिर क्यों गए थे?
रोजगार के लिए प्रवास का उद्देश्य तो स्पष्ट है लेकिन ऐसे लोग किन कार्यों के लिए जाते हैं। इनमें सबसे बड़ी संख्या कृषि मजदूरों की है उसके बाद ईंट भट्ठों में काम करने वाले कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले और अकुशल मजदूरी करने वालों का नंबर आता है। अगर इस नजरिए से देखें तो भारत में काम करने वाले मजदूरों का लगभग 93% भाग प्रवासी मजदूरों का है और यह 93% 45 करोड़ की तादाद से कहीं ज्यादा है। अब सवाल उठता है कि यह प्रवासन क्यों होता है? क्या कोई आपदा है जिसके कारण यह मजदूर अपना घर बार छोड़ कर चले जाते हैं या फिर अवसर का अभाव है? आजादी के पहले हमारे देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी थी जो आजादी के बाद की सरकारों की नीतियों के कारण तथा व्यापक शहरीकरण के कारण आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो सकी। कृषि भूमि पर दबाव बढ़ता गया और जो कृषक थे वह मजदूर बनते गए। इसके बाद मजदूरी के अभाव के कारण उन्हें संभावित मजदूरी वाले स्थानों पर जाना पड़ा। यह जाना धीरे धीरे बड़ी संख्या में बदलता गया और गांव के लोग शहरों की ओर पलायन करने लगे। जब पुरुषों का पलायन शुरू हुआ खेतों में काम करने के लिए महिलाओं को मजबूर होना पड़ा और जो कृषि कर्म पुरुष प्रधान था वह दुखद रूप में महिला निर्भर होने लगा। मजदूरों के प्रवासन का कारण गांव की आर्थिक लाचारी, सामाजिक वंचना इत्यादि मुख्य कारण है और जो लोग आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं वह इसे गांव भूख अघोषित बंधुआ मजदूरी और जातिगत दुर्व्यवहारों का परिणाम समझते हैं जहां से बाहर निकले बिना सम्मान से जीने की उम्मीद करना मुमकिन नहीं है।
अब जबकि मजदूर अपने प्रवास स्थल को छोड़कर उद्गम स्थल की ओर आ रहे और भयानक बेरोजगारी का शिकार हो रहे हैं ।तो ऐसा लगता है कि देश में कोई न कोई भारी श्रमिक उपद्रव होगा। क्योंकि, अगर अनुसंधान के आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि जितने लोग कोरोना वायरस से नहीं मरे उससे ज्यादा लोगों ने खुदकुशी कर ली है। उस दुख का अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है हजारों लोग किन हालात में अपने कमजोर बच्चों को लेकर पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े। भूख प्यास से जूझते रास्ते में पुलिस से मार खाते हैं चल पड़े हजारों लोगों की तस्वीरें हम अक्सर देखते हैं। इन तस्वीरों के विषय यह चीखकर बोल रहे हैं कि कोविड-19 के कारण जितने लोग बेरोजगार हुए उतने तो दशकों पहले आई महामंदी में भी नहीं हुए थे । साहित्य नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले जॉन स्टीनबैक ने “द ग्रेप्स आफ रैथ” महामंदी के दिल दहला देने वाले मंजर का जिक्र करते हुए लिखा है कि अमेरिका में 15% लोग बेरोजगार हो गए और इससे आत्महत्या जैसी घटनाएं बढ़ने लगीं। आज भारत का क्या मंजर है? सेंटर फाॅर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार भारत में 27% लोग बेरोजगार हो गए हैं इनमें 9.1 करोड़ दो केवल अप्रैल में बेरोजगार हुए जिनमें ज्यादातर छोटे व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर थे। स्टीनबैक ने तो आम अमेरिकी के पास एक मोटर कार होने की पीड़ा का जिक्र किया है यहां हमारे देश में एक रोटी के बिना सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल के आने और थक कर चूर हो जाने के बाद रेल पटरी पर ही सो जाने का जो दर्द है उस दर्द का जिक्र कहीं नहीं आ रहा है। अब अगर हालात सुधर भी जाते हैं तो घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों में से कितने झोपड़ पट्टियों में लौटकर जीवन और मृत्यु की लड़ाई लड़ेंगे? क्या उन्हें लौटने के बाद उनके नियोक्ता उनसे बेहतर कार्य शर्तों की पेशकश करेंगे? शायद नहीं। यहां तो लाखों लोग ऐसे हैं जो रोजगार को यादों का हिस्सा मानकर मजदूरी छोड़ चुके हैं। बढ़ती आबादी में छोटे वर्क फोर्स के कारण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को भारी झटका लगेगा क्या इसका कोई जनसांख्यिकी लाभ मिलेगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी भविष्यत स्थिति के कारण आम मजदूरों की वापसी के लिए पहले ट्रेनों का बंदोबस्त किया और अब कुछ जोड़ी ट्रेनों को कुछ स्थानों के लिए खोला है। ताकि मजदूरों को यह इत्मीनान हो मोदी जी उनके साथ हैं और वह इसी के कारण फिर लौटने का मन बनाएं और अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगे।
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