पूरी दुनिया कोरोना वायरस के आतंक से पीड़ित है और यह साफ तौर पर हमारी और समग्र रूप से कहें तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो रहा है लेकिन इसके साथ ही बड़ी चालाकी से इससे लोकतंत्र भी प्रभावित हो रहा है और इसी के साथ प्रभावित हो रहे हैं हमारे रिश्ते भी। जो समाज विभिन्न जातियों में उदग्र रूप में और इतिहास के घटनाक्रम के कारण क्षैतिज रूप में भी विभाजित है उस समाज के आपसी रिश्ते और ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। पिछले दिनों हमने प्रवासी मजदूरों के पलायन और तबलीगी जमात को लेकर लोकतंत्र को कोसा है। इस बीच हमने लॉक डाउन के दौरान अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर शासन व्यवस्था की कल्पना भी करनी शुरू कर दी है। इस कठोर शासन व्यवस्था के साथ चोर दरवाजे से तानाशाही शासन की कल्पना भी आती दिख रही है। पिछले दिनों जब कोविड-19 का हमला हुआ उम्मीद थी कि जल्दी ही इसकी दवा निकल जाएगी और दुनिया को इससे मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन, मार्च के अंतिम सप्ताह के आते-आते विश्वास डगमगाने लगा। भारत में इस बीमारी से लड़ने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नैतिक ,भावनात्मक और वैज्ञानिक समर्थन देने में कोई कोताही नहीं बरती नाही देश के लोगों ने ऐसा प्रदर्शित किया कि वह उनके साथ नहीं हैं। थाली- ताली बजाने और दीपक जलाने से लेकर कोरोना योद्धाओं को तीनों सेना की सलामी दिए जाने से बेहतर कोई भी नैतिक और भावनात्मक समर्थन नहीं है। वैज्ञानिक वर्ग अपना काम कर रहे हैं। भारत ही नहीं पूरी दुनिया के वैज्ञानिक इस में जुटे हैं। दूसरे देशों की बात को छोड़ दें लेकिन हमारे देश में विपक्षी राजनीति और उसके समर्थक जहां एक ओर सरकार की तीखी आलोचना कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ स्वयंभू बुद्धिजीवी कठोर शासन की वकालत कर रहे हैं। बेशक ऐसे शासन के लिए सरकार की तरफ से किसी तरह की जमीन तैयार करने की कोशिश नहीं है। दरअसल यह एक मनोवैज्ञानिक आपदा है। मरने वाले लोगों के बढ़ते आंकड़े के कारण तानाशाही के समर्थन में लामबंदी होती दिख रही है कई लोगों ने तो यह कहना शुरू कर दिया कि लोकतंत्र कोरोनावायरस में बाधक हो रहा है। एक समूह ने तो तबलीगी जमात की आड़ में पूरे संप्रदाय को भी विरोधी मांनने का मोर्चा खोल दिया है।लोगों ने तो यह भी कहना शुरू कर दिया है डेमोक्रेसी फ्रीडम और ह्यूमन राइट्स की बातें शांति के समय अच्छी लगती हैं। कोरोना वायरस से लड़ रही मोदी सरकार कभी नहीं चाहेंगे कि लोकतंत्र खत्म हो या किसी भी कारणवश देश के दो समुदायों में तनाव बढ़ता रहे। अविश्वास की ऐसी मनोदशा इस तरह की महामारी से जंग में बाधक हुआ करती है। लेकिन, यहां यह जानना जरूरी है ऐसे मत भेजो कि बुनियादी कारण क्या हैं। तबलीगी जमात के सम्मेलन को अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति विदेश के मामलों में वृद्धि के लिए सीधे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। सम्मेलन को रद्द कर दिया गया लेकिन इसमें शामिल होने वाले लोगों को उनके घरों तक लौटने में कोई पाबंदी नहीं लगी। बेशक यह प्रशासन की गंभीर भूल थी। क्योंकि, उस समय प्रशासन इस लौटने के सामाजिक प्रभाव और कोरोनावायरस के प्रसार में इसकी भूमिका का आकलन नहीं कर सका। इस घटना के विरोध में व्यापक सामाजिक प्रतिक्रिया होने लगी। लॉक डाउन जोकि कोरोना वायरस के प्रसार रोकने का एकमात्र प्रभावी उपाय है उसके समानांतर तबलीगियों के व्यवहार को एक असामाजिक कृत्य मान लिया गया। जब आम जनता इस तरह के मुद्दों पर अपनी राय बनाती है तो तर्कों को अनदेखा किए जाने की प्रबल आशंका रहती है। डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस के जवानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले समाचार और वीडियो खुलकर सामने आने लगे। इनमें ज्यादातर समाचार और वीडियो झूठे थे, लेकिन जब अविश्वसनीय समाचार समय पर उपलब्ध नहीं होते तो इस तरह के फर्जी समाचार विश्वसनीयता हासिल कर लेते हैं। ऐसे ही मौके के लिए सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि पूरी आबादी को एक इकाई के रूप में देखा जाना जरूरी है क्योंकि इससे कोई राहत के प्रयासों से बचे नहीं उन्होंने कहा कि तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित को महत्व देना जरूरी है खास करके ऐसे मौकों पर। संघ के शीर्ष नेता द्वारा दी गई इस सलाह को गंभीरता से देखा जाना चाहिए और गैर जिम्मेदाराना खबरों के माध्यम से माहौल को खराब करने से रोका जाना चाहिए ।
कुछ लोग व्यापार बहिष्कार का भी नारा दे रहे हैं। लेकिन इससे क्या होगा? यही हाल समाज को विभाजित करने की कोशिशों का है। रंगभेद की सजा के तौर पर दक्षिण अफ्रीका के बहिष्कार की कहानी इतिहास में अंकित है। इसी तरह 2005 में युलांड्स पोस्टन अखबार द्वारा एक विवादास्पद कार्टून यह प्रकाशन के बाद कुछ मुस्लिम देशों ने टेनिस वस्तुओं के बहिष्कार आरंभ कर दिया था। इराक युद्धके जमाने में अमेरिका ने भी फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की थी, दूसरे परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर लगाए गए प्रतिबंधों संबंधी कई घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं और यह सारे प्रतिबंध अंततः प्रतिकूल कदम साबित हुए। इसके विपरीत सामाजिक बंधन और आपसी एकता सभी विषम परिस्थितियों में समय की कसौटी पर कामयाब हुए हैं यद्यपि इसे हासिल करने के लिए सभी समुदायों के जिम्मेदार और समझदार तत्वों को साथ आना पड़ा है। मौजूदा संकट की स्थिति में जरूरी है की एकजुटता पर लोगों को जागरूक बनाने का प्रयास किया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो देश को एकजुट करने की कोशिश की है उसके परिणाम सकारात्मक दिख रहे हैं। जरूरत है सबको इस प्रयास में साथ लेकर चला जाए तभी हम इस महामारी पर विजय पाएंगे और देश को मानसिक रूप से विभाजित होने से रोक पाएंगे।
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