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Monday, May 25, 2020

नौकरशाही ने प्रधानमंत्री को निराश किया



नौकरशाही ने प्रधानमंत्री को निराश किया


कोरोनावायरस के फैलने से रोकने के लिए दुनिया के कई देशों ने लॉक डाउन जैसी व्यवस्था लागू की। इस कारण भारत में जो तबाही हुई और जो व्यापक कोहराम मचा उसका उदाहरण इतिहास में नहीं है। लॉक डाउन के बाद से लाखों लोग सड़कों पर हैं । देश की आबादी बहुत बड़ा भाग शहरों से गांव के बीच चल रहा चलता जा रहा है। यद्यपि, सरकारों ने उन्हें लाने या घर भेजने का भरसक बंदोबस्त किया। लेकिन, इतनी बड़ी आबादी को आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। एक प्रश्न है कि कोरोना संकट इस दौर में जिस मानवीय त्रासदी को और जिस पलायन को भारत ने झेला है वह सिर्फ भारत में ही क्यों हुआ? ना तो भारत दुनिया का सबसे गरीब देश है ना सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है और ना ही यहां के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी की नेक नियती में कोई कमी है। इसके बावजूद इतनी बड़ी आबादी सड़कों पर कैसे आ गई और वह अभी भी कायम है। इसके लिए हमें भारतीय लोकतंत्र और नौकरशाही के रिश्तों का विश्लेषण करना होगा और उसके बरक्स संसद की भूमिका की जांच करनी होगी। भारत की जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है वह हमने ब्रिटेन से लिया है। इसके अनुसार हमारी कार्यपालिका संसद के प्रति जवाबदेह है। कार्यपालिका में दो तरह की व्यवस्था है एक तो निर्वाचित और दूसरी चयनित। निर्वाचित व्यवस्था के अंतर्गत प्रधानमंत्री इत्यादि आते हैं और व्यवस्था के अंतर्गत ब्यूरोक्रसी आती है। ब्यूरोक्रेसी का सर्वोच्च पद कैबिनेट सेक्रेटरी का होता है और प्रधानमंत्री उसके ऊपर होते हैं। अब अगर कहीं व्यवस्था कारगर नहीं होती तो कार्यपालिका के दोनों अंगों की समीक्षा होनी चाहिये। क्योंकि इनका आपसी तालमेल से ही व्यवस्था का सृजन होता है। भारत में कोरोना वायरस का कहर एक ऐसे वक्त में हुआ जब पूरी दुनिया में दक्षिण पंथ का उभार का दौर चल रहा था और यह नेता अपनी भाषण शैली और विरोधियों पर तीखे प्रहार के लिए जनता के एक हिस्से के साथ भावनात्मक संबंध बना लेते हैं और इस जन समूह में उनके कार्यों की समीक्षा नहीं होती। विख्यात इतिहासकार डॉ बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया में लिखा है कि ब्यूरोक्रेट्स, संसद और न्यायपालिका मिलकर सरकार पर अंकुश लगा सकती है लेकिन दक्षिण पंथ के उभार में यह तीनों आजाद नहीं रह पाते। भारत में शासन व्यवस्था ब्रिटेन की नकल है लेकिन कोरोना संकट के काल में ब्रिटिश संसद लगातार काम करती रही जबकि इसके विपरीत भारत में संसद मौन रही। संसद स्थगित कर दी गई। कार्यपालिका जो कर रही है या कार्यपालिका ने जहां भूल की है यह कौन पूछेगा। ऐसा नहीं प्रधानमंत्री का लोगों से संवाद नहीं हो पा रहा है। लेकिन, उस संवाद में खिलाड़ी शामिल हैं। कोई भी महामारी एक साथ पब्लिक हेल्थ और कानून व्यवस्था का विषय है और यह दोनों विषय राज्यों के कार्यक्षेत्र में आते हैं। इस नाते उचित होता कि लॉक डाउन की घोषणा के पहले मुख्यमंत्रियों से परामर्श लिया जाता लेकिन यह बाद में हुआ। इस बीच मंत्रिमंडल की भी लगातार बैठकें नहीं हुई। इसलिए अपनी तमाम नेकनियती के बावजूद प्रधानमंत्री जमीनी हकीकतों से पूरी तरह वाकिफ हो पाए। उन्हें इस बात का अंदाज ही नहीं लगा लॉक डाउन के बाद जनता पर क्या असर होगा। इतना ही नहीं इस दौरान ब्यूरोक्रेसी की भूमिका भी घटी हुई दिखाई पड़ी। गृह और स्वास्थ्य मंत्रालयों के फैसलों के बारे में प्रेस ब्रीफिंग करने का जिम्मा जॉइंट सेक्रेटरी स्तर के अफसरों को दिया गया। यह मझौले दर्जे के अफसर हैं। इससे साफ पता चलता है कि कोरोनावायरस से निपटने के लिए प्रधानमंत्री पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर हैं। समाजशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार नौकरशाही में संस्था को चलाने वाले विशेषज्ञ होने चाहिए। जिन्हें हर बात को लीगल और रैशनल तरीके से सोचना चाहिए। लेकिन कोरोना काल में भारतीय ब्यूरोक्रेसी अपनी भूमिका नहीं निभा सकी। वैसे भी नौकरशाही किसी भी अत्यंत जटिल मसले पर तुरंत और जरूरत के हिसाब से फैसले नहीं कर सकती। ऐसे में सबसे आसान प्रक्रिया में बंधे रहकर काम करना होता है।





अब जबकि लोकप्रिय नेता चुनकर आ रहे हैं तो वे हर चीज के विशेषज्ञ तो होते नहीं इसलिए विशेषज्ञता के लिए सदा नौकरशाही पर निर्भर करते हैं जबकि नौकरशाही के चयन और चरित्र ऐसा होता है जहां विशेषज्ञ तो होते नहीं। ऐसे ही नौकरशाही पर हमारा कोरोना संकट निर्भर है। हमारे अफसर मंत्रियों को खासकर प्रधानमंत्री को सलाह देने के काम में लगे रहते हैं और शायद यह अनुमान नहीं लगा पाते कि अचानक लॉक डाउन करने से करोड़ों लोगों पर संकट आ जाएगा और लोग सड़कों पर निकल आएंगे। प्रधानमंत्री के साथ भी यही हुआ। अब खबरें मिल रही हैं वे चिंतित हैं और इस संकट से निपटने के लिए राज्यों को अधिकार दे रहे हैं। प्रधानमंत्री की नेकनियती में कहीं दोष नहीं है लेकिन यह भी सच है कि कोई एक आदमी सभी बातों का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। कहीं ना कहीं उससे चूक हो जाती है।

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