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Friday, May 22, 2020

प्रवासी श्रमिक शायद गांवों में अनुपयोगी हो जाएं







प्रवासी श्रमिक शायद गांवों में अनुपयोगी हो जाएं





देश के विभिन्न भागों में फैली कोरोना वायरस महामारी के कारण यहां काम करने वाले प्रवासी मजदूर किसी भी तरह अपने घर लौट रहे हैं। लगभग ढाई करोड़ मजदूर लौटेंगे। भारत के गांव ज्यादातर खेती पर निर्भर है इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले से ही कई तरह के बोझ से लदी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया। यह आदर्श तो बड़ा अच्छा है और बेशक मोदी जी का प्रयास होगा इस दिशा में आगे बढ़ा जाए लेकिन कैसे, साधन क्या है? भारतीय गांव कृषि पर निर्भर हैं और यह निर्भरता इतनी ज्यादा है शायद दूसरी दिशा में अभी तक नहीं देखा गया। अभी भी गांव में जो सरकारी कार्यक्रम चल रहे हैं उनमें कृषि प्रमुख है या वही कार्य है जो कृषि से जुड़े हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम से आरंभ करो माइक्रो, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यम भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सहयोगी तो हो सकता है लेकिन घर लौटने वाले मजदूरों की समस्याओं को हल करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यद्यपि, कितने लोग अपने गांव को लौटेंगे इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं है जनगणना 2011 आंकड़े बताते हैं कि लगभग17.8 मिलियन लोग मजदूरी के लिए अपने गांवों से अन्य स्थानों पर गए। लेकिन उन्हीं आंखों से पता चलता है 2001 से 2011 तक लगभग 23 मिलियन अपने अपने गांवों से गए हैं और लॉक डाउन को देखते हुए इस संख्या के लौटने की उम्मीद है।


गांवों में ज्यादा आबादी गुप्त बेरोजगारी को जन्म देती है। भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगभग भारत की 70% आबादी को पालती है। सरकार के ताजा देवर सर्वे के मुताबिक इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्तर हीन जीवन जीने के लिए लोग मजबूर हैं। 2015 - 16 में ग्रामीण प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 40,928 रुपए थी जबकि उसी अवधि में शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 98,435 रुपए हुआ करती थी। ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति ही उत्पादन शीलता कम होती है। भारत की समग्र कार्य शक्ति लगभग 71% ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लगी है लेकिन अर्थव्यवस्था में इसका योगदान महज 48% है। ग्रामीण कार्य शक्ति उत्पादन क्षमता शहरी वर्क फोर्स से कम है। गांव में ज्यादा पूंजी और तकनीक से श्रमिक उत्पादन शीलता मैं बढ़ावा मिले लेकिन इसके बाद भीश्रमिक उत्पादन क्षमता पिछले वर्षों में घटी है। 1970- 71 में उत्पादन शीलता का अंतर 12% से कम था जो 2017 18 बढ़कर 13% से ऊपर चला गया। ऐसी स्थिति में ग्रामीण अर्थव्यवस्था गांव में लौटने वाले श्रमिकों रोजगार नहीं दे सकती।





ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है की वह खेती पर बहुत ज्यादा निर्भर है और खेती के अलावा कोई ऐसा साधन नहीं है जिसमें इतनी बड़ी आबादी को रोजगार दिया जा सके क्योंकि गांव में विविधता अभाव का है। साधारणतया भारतीय मजदूरों को ज्यादा काम एमएसएमई सहित उत्पादन क्षेत्र से प्राप्त होता है। अब जबकि यह मजदूर लौट रहे हैं अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा। पीरियोडिक लेबर सर्वे बताते हैं कि14 वर्ष से कम उम्र बच्चे बूढ़ों पर निर्भर है। यही नहीं टोटल लेबर फोर्स को समय नहीं मिलता है और ना ही काम काम का अनुबंध। अधिकांश मजदूर सामाजिक सुरक्षा जिलों से भी वंचित हैं। जिन राज्यों से ज्यादा मजदूर बाहर जाते हैं उन राज्यों में उतने ही ज्यादा बेकारी होती है। अब यह मजदूर जब अपने राज्यों में लौटेंगे तुम्हें काम देना बड़ा कठिन हो जाएगा। इस स्थिति के मद्देनजर बिहार उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा मजबूर अन्य राज्यों में काम के लिए गए हैं और जब लौटेंगे और जब हालात सामान्य हो जाएंगे तो उन्हें रोजगार दर-दर भटकना पड़ेगा। हमारे देश में पहले भी मौसमी बेरोजगारी थी। यदि किसी विशेष मौसम में बेरोजगार श्रमिक को सहायक व्यवसाय में काम मिल भी जाता था तब भी वह बेरोजगार बने रहे थे अस्पष्ट ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी दोनों ही कायम है।लेकिन अभी जो अफरा-तफरी दिख रही है उसमें केवल सरकार दोषी नहीं है। महामारी अगर अचानक आ जाती है तो अफरा तफरी हुई जाती है। कुछ लोग सरकार को दोषी बना रहे उनके दोस्त बनाते हैं लेकिन वह जमीनी सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हैं। अगर आपदा ऐसी भयानक है तो नेक नियति से भरा हुआ नेता भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में नेता को गलत कहना और दोषी करार देना खुद में गलत है। बेकारी बढ़ेगी यह तय है। आने वाले वक्त में किताबों में दर्ज होगा कि 2020 में भारत कई मोर्चों पर जूझ रहा था और इसे परास्त करने के लिए जो कदम उठाए गए वह पर्याप्त नहीं थे। हालात स्वरूप बदल करो हमारे सामने आए हैं। भारत विभाजन का कत्लेआम के लिए आज गांधी को दोषी ठहराया जा रहा है। कल का इतिहास आज के किन नेताओं को दोषी ठहराया यह बताने की जरूरत नहीं है।

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