31 अक्टूबर 2015
आम तौर पर खाना- पीना या पहनना किसी के जीवन- मौत का सवाल बन जाय तो बड़ा अजीब लगेगा। लोग वैसे आदमी पर हंसेंगे। लेकिन ऐसा हो रहा है, कई समूह इन बातों पर, खासकर खाने-पीने के मामलों पर नजर रखने के लिए कमर कसे हुए हैं। जब सत्ता और ऐसे समूह इस तरह की निगरानियों में एक में मिल जाएं तो हालात बड़े खतरनाक हो जाते हैं। ऐसी ही एक घटना दिल्ली में हुई। बुधवार को एक संगठन की शिकायत पर दिल्ली पुलिस ने दिल्ली के केरल भवन पर छापा मारा। वह तो खुश किस्मती थी कि मामला दादरी वाली घटना की तरह खतरनाक नहीं हुआ पर इस तरह के काम में दिल्ली पुलिस का जुड़ना अपने आप में एक चिंतित कर देने वाला कार्य है। मामला जब गरमाया तो दिल्ली पुलिस ने चेहरा बचाने के लिहाज से कहा कि वहां की कैंटीन में क्या पक रहा था वह छापे का उद्देश्य नहीं था। वह तो साम्प्रदायिक तनाव को रोकने की गरज से पुलिस गयी थी। पुलिस का यह स्पष्टीकरण उतना ही संदेहास्पद है जितना उन स्वयंभू गोरक्षकों का कार्य। ये स्वयंभू गो रक्षक हठात देश की धार्मिक और राजनीतिक अस्मिता के बिम्ब बन बैठे।
यूं तो हमारे देश में सैकड़ों दल ,सेनाएं और सोसाइटिया हैं जो जनहित में काम करने के लिए बना तो ली जाती हैं पर धीरे -धीरे विलुप्त हो जाती हैं। कारण कोई भी रहा हो , लेकिन अधिकतर मामलों में इनका एजेंडा साफ नहीं रहता जिसके कारण संगठन अपनी राय स्पष्ट नहीं कर पाते हैं और दूसरा इनके प्रमुखों की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा ,जो एजेंडे को परिवर्तनशील बनाये रखते हैं और वे अपने संगठन का विस्तार नहीं कर पाते । साथ ही साथ देश में कई ऐसे संगठन हैं जिनका प्रभाव पिछले कुछ दिनों में बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। लेकिन क्या उनका एजेंडा सही है? ये सोचने का एक बड़ा प्रसंग हो सकता है। जैसे हाल ही में कुछ संगठनों ने खाने-पीने की चीजों पर ध्यान तो दिया जिसका असर भी दिखा लेकिन उनके विषय विरोधाभासी थे जिसका जनमानस पर नकारात्मक असर दिखा लेकिन क्या इसे हम सकारात्मक बना सकते हैं ? ऐसा भी हो सकता है , हम इसी एजेंडे को जन चेतना का एजेंडा बना सकते हैं । जैसे कोई व्यक्ति विशेष क्या खा रहा है इसको छोड़ कर ये देखने की जरूरत है कि कितने व्यक्ति ऐसे हैं जिनके पास खाने के लिए आटा ,दाल चावल नहीं हैं ? कितने व्यक्ति ऐसे हैं जिनके पास रहने के लिए मकान नहीं हैं ? कितने व्यक्ति ऐसे हैं जिनके पास इलाज़ के लिए पैसे नहीं हैं?कितने व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी फसलें बर्बाद हुई हैं ?
सारे हालात देख कर ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो नावों पर सवार हैं। एक नाव है विकास की और दूसरी है हिंदुत्व की। उनका मानना था कि वे दोनों को अलग- अलग रखेंगे। एक से उन्हें बहुलवादी समाज का समर्थन मिलेगा और दूसरे पर सवार होकर विदेशी निवेश आयेगा।
2014 के चुनाव के विजेता को यह बखूबी मालूम है कि इस िस्थति से उन आश्वासनों या वायदों को पूरा नहीं किया जा सकता है। पर उन हिंदूवादी संगठनों को रोके कौन?यह संयोग ही हो सकता है, केरल भवन की यह घटना लगभग उसी समय हुई जब देश के तीन प्रमुख वैज्ञानिकों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता पर क्षोभ जाहिर किया था। बेशक भारत में क्या हो रहा है और भारत की क्या परम्परा है , इस बात पर बाल की खाल निकालना बड़ा आसान है। लेकिन उन वैज्ञानिकों की उस बात को आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में जो हो रहा वह रूढ़िवाद है और वैज्ञानिक सोच के प्रतिकूल है। उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया। परंतु , धर्म के नाम पर इन दिनों जो हो रहा है उसमें कई हिंदूवादी संगठन शामिल हैं , यहां तक कि सत्तारूढ़ दल भाजपा के लोग भी कई मामलों में जुड़े हुए हैं। जो कुछ भी हो रहा है उसमें केवल एक दूसरे पर तोहमत लगाने से कुछ नहीं होने वाला। उदार विचार एवं उदारता आज की बुलंदी ही हालात पर काबू पा सकती है।