मंगलवार को इस्ताम्बुल की हिंसा की खबरों को देखने-सुनने के बाद अगर किसी को उसके आगे पीछे की आतंकी घटनाओं की स्मृति होगी तो ऐसा महसूस होता होगा कि दुनिया नर्क बनती जा रही है। लगता है कि ‘बारूद के एक ढेर पर बैठी है यह दुनिया।’ इसके बाद सबसे स्वाभाविक प्रश्न होता है , ऐसा क्यों? क्यों हो रहा हैऐसा? आगर ऐसी घटनाओं का उत्तर तलाशने निकलेंगे तो सबसे पहले इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या करनी होगी। जब भी इस तरह की घटना होती है तो हम सबसे पहले उसके मायने तलाशते हैं। हम यह तलाशने लगते हैं कि इसके बारे में सबसे ज्यादा कौन बता सकता है, राजनीतिज्ञ, सरकार या मीडिया। अगर आप किसी धार्मिक व्यक्ति से पूछेंगे तो वह कहेगा‘भगवान ही बेहतर जानता है। ’ इससे आपके प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। क्योंकि आपने जिससे दरियाफ्त किया वह खुद इस मामले कुछ नहीं जानता। अगर आप धार्मिक हैं तो हो सकता है कि आप इसे थोड़ी देर के लिये मान लें। पर आपकी ज्ज्ञिसा शांत नहीं होगी। अगर यही बात आप किसी बड़े सरकारी अफसर से पूछेंगे तो वह कहेगा कि यह सब इस लिये होता है कि हथियार और बारूद आसानी से मिल जाते हैं। अपराधशास्त्र की भाषा में कहें तो यह ‘गन कल्चर ’ के विकास के कारण हो रहा है। अगर आप किसी मनोशास्त्री से कहेंगे तो यह इसकी व्याख्या आपके मनिस में असमान्यता की बात करेगा और इसके उपचार की सलाह देगा। यानी हर आदमी के पास एक ही घटना के अलग अलग उत्तर हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि सब अपने उत्तर को ही सही कहते हैं। लेकिन ऐसी घटना का केवल एक ही कारण नहीं हो सकता। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह मनोरोग है और इसका उपचार है। जहांतक मनोरोग का सवाल है जो लोग आतंकी शिविरों को जानते हैं उन्हें मालूम है कि वहां सबको एक हल्का नशा दिया जाता है जिससे वे अपनी काल्पनिक दुनिया में जीते हैं तथा हमले का टार्गेट उस काल्पनिक दुनिया का दुश्मन बताया जाता है। यही कारण है कि वे जान देकर भी उस काम को अंजाम देते हैं। यानी दुश्मन का खत्मा करते हैं। इसके अलावा यह देखना-पड़ताल करना भी जरूरी है कि हमलावर जिस संस्कृति के रहने वाले हैं वहां हिंसा का क्या स्थान है। यहां बात केवल शारीरिक हिंसा की नहीं है। इसके अलावा मानसिक और इमोशनल हिंसा के पर्यायों को भी परखना होगा। जिस संस्कृति के हमलावर हैं वे अगर शारीरिक हिंसा ना भी करें तो विभिन्न तर्को का सहारा लेकर मानसिक और इमोशनल हिंसा भी करने लगते हैं जैसे दुश्मन के बारे में दुष्प्रचार और उन्हें अलग थलग करने की अपीलें इत्यादि। ये बातें हमारे भीतर भी यानी हमारी संस्कृति में भी हैं। अगर बच्चे बात ना मानें तो उन्हें तमाचे रसीद कर देना, अगर बड़े आपकी मर्जी का काम ना करें तो उनके बारे में तरह- तरह की भ्रांतियां पैदा करना, दुष्प्रचार करना और अगर कोई मुल्क आपकी ना सुने तो उसपर सैन्य आक्रमण कर देना। इन दिनों अगर आप सोशल मीडिया में देखते होंगे तो सहज ही अंदाजा मिल जायेगा। यहां तक कि ‘डंटरटेनमेंट इंडस्ट्री’ में भी हिंसा को मसाला बनाया जाता है। अगर आप ऐसा करने वालों से पूछें तो वे कहेंग कि यह तो बाजार की मांग है पर होता यह है कि आप संस्कृति तथा सभ्यता की आड़ में इस मांग को पैदा करते हैं। किसी फिल्म में एक अच्छा आदमी एक बुरे आदमी को मारता है। यह अछचे और बुरे की विवेचना नहीं है बल्कि मारना प्रमुख है। प्रमिका दगा देती है यहां प्रेम की बात नहीं है बल्कि जोर दगा देने पर है और यह दर्शाया जाता हे कि यह गलत है। दर्शकों को उसे गलत स्वीकार करने के लिये एक तरह से सम्मोहन की स्थिति में लाया जाता है। इसके परिणामस्वरूप उनके मन में गुस्सा आता है और जो कालांतर में हिंसक ग्रंथि को मजबूत बनाता है। यही नहीं खेलों को देखें उनका स्वरूप कितना बदल गया। दर्शक , खेल और खिलाड़ी के रिश्ते में भयानक इमोशन आ गया है। किसी दल के लिये खेलने वाली टीम एक तरह से दर्शकों के उत्साह को इमोशन में बदल देती है और वह गुस्सा या शाबाशी के थे खानों में बदल जाता है। नतीजा यह होता है उनकी हार या जीत पर एक गुस्सा या एक उत्साह होता है जो बद में एक ग्रंथि बनजाता है। बात ग्रंथि की नहीं बल्कि उसके प्रकाशन की है। इस्ताम्बुल में जो हुआ वह उन्हीं ग्रंथियों के प्रकाशन का नतीजा था। ध्यान रहे कहीं की कट्टरता एक हिंसक ग्रंथि को जन्म देती है चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक हो या शैक्षणिक। यह या इस तरह की हिंसा सभ्यता और संस्कृति के विकास की निर्मम अनिवार्यता है। जिसने एक तरफ मनुष्य को धर्म के मिथकीय अतीत में और दूसरी ओर उसे सभ्यता के सुदूर भविष्य में अवस्थित कर दिया है। लेकिन दोनों का वर्तमान से कोई रिश्ता नहीं जुड़ पाता। सालबैलो ने अपने उपन्यास ‘डीन्स दिसम्बर’ में एक ऐसी कल्पना की थी जिसमें पूरी दुनिया ऐसी आबदी में बदल जायेगी जिसमें लाखों लोग एक दूसरे को मरने मारने पर आमादा रहेंगे। एक तरह का जंगलराज पैदा लेगा। लोगों को खुद अपनी संस्कृति के भीतर ही शरणार्थी बन कर रहना होगा। आज आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्र में शाति और अमन के चाहने वाले ऐसे ही शरणार्थी हैं। इसके दोषी हम सब हैं। क्योंकि मनुष्य का यह आत्म निर्वासन आधुनिक बोध की देन है। यह आधुनिक बोध एक ऐसे खंडित काल बोध से पैदा हुआ जिसमे इतिहास और परम्परायें दों स्वतंत्र इकाइयों में बंट गयी थीं। आज का समाज इतिहास और परम्पराओं को जोड़ नहीं पा रहा है और दोनों हिंसा की रक्त प्रवाहिनी नदी के दो तट की तरह हो गये हैं। इस्ताम्बुल में जो हुआ या अन्यत्र जो हो रहा है वह इतिहास और परम्परा के विभाजन का ही परिणाम है।
Friday, July 1, 2016
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