एक ऐसा मंजर जो पूरी दुनिया में दिख रहा है अपने अलग अलग स्वरूपों में सबमें एक सा जहर है। चाहे वह अमरीका के डोनाल्ड ट्रम्प हों, या ब्रिटेन का ब्रक्सिट या ओलैंडों का नरमेध या पाकिस्तान में ‘ईशनिंदा’ कानून का हिंदुओं के लिये दुरुपयोग या भारत में कथित गो भक्तों की गतिविधि। इन सारे मंजर के पीछे एक ही मनोभाव है वह है – घृणा का भाव। दुनिया की छोड़े और अपने घर में कायम घृशा के इस अंधेरे में एक रोशनी जलाएं और जानने की कोशिश करें कि इस गो भक्ति से घृणा का सूत्रपात कैसे होता है। ये कथित गो भक्त स्यूडो धार्मिक विचार वाले हैं और गायों के प्रति जिनकी आस्था कम है उनसे नफरत करते हैं। इनके निशाने पर गाय खरीदने का धंधा करने वाले और मृत गौओं का चमड़ा निकालने के पुश्तैनी काम करने वाले हैं। हिंदुत्व खेमे के इन गो भक्तों के प्रति कानून चुप है। गोभक्तों के इस गुस्से की पीछे मृत या जीवित गायों के प्रति ‘दुर्व्यवहार’ ही एकमात्र कारण नहीं है। गायों की खरीद बिक्री का धंधा करने वाले या मृत गौओं का चमड़ा उतारने वालें की जाति भी इसका मुख्य कारण है। यह हैरत की बात नहीं है कि झारखंड के लतेहार में गायों को खरीद कर ले जाते हुये जिन लोगों को मौत के घट उतार दिया गया वे मुस्लिम थे और उना में जिन लोगों की पिटाई के बाद उपद्रव हुआ वे दलित थे। केसरिया लहर की हसरत रखने वाले ‘हिंदू गेस्टापो’ के लिये मुस्लिम और दलित दोनो अछूत हैं। यह भी किसी छिपा नहीं है कि भाजपा ने अपने आधुनिक विस्तार काल में नफरत के इस भाव को बढ़ाने की पूरी कोशिश की थी। अयोध्या कांड के बाद अक्सर मथुरा और वाराणसी की मस्जिदों के बारे में जो चेतावनियां सुनीं जाती थीं वह किसी को भी ‘हदसा’ देने के लिये काफी थीं। दूसरे विश्व युद्ध के पहले नाजियों द्वारा यहूदियो के पूजास्थल फूंकने की घटना के बाद इतिहास में यह पहला वाकया था जब किसी अल्प संख्यक समुदाय के आराधनास्थल को किसी राजनीतिक संगठन ने ध्वस्त किया। मुस्लिम आरंभ से हिंदुत्व ब्रिगेड की घृणा की वस्तु रहे हैं। लेकिन भगवाइयों के लिये दलित क्यों नफरत का सबब बन गये बड़ा मुश्किल है समझना खास कर के ऐसे समय में जब अगले साल भाजपा को इन दलितों के वोट की जरूरत पड़ेगी। हो सकता है कि कथित मनुवाद की घृणा को फैलाने की यह साजिश हो। इसका असर ग्लोबल होता जा रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने आतंकवाद के बहाने मुस्लिमों पर जहर उगला है। ट्रम्प को वाहवाही भी मिली है। पर टाइम पत्रिका में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि ट्रम्प का समर्थन करने वाले वे अमरीकी नहीं हैं जिन्होंने उनके मुस्लिम विरोध पर तालियां बजायीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो ग्लोबलाइजेशन के मुखालिफ हैं और एकाधिकारवादी हैं। क्योंकि जब अमरीका ने अपने दरवाजे खोले तो यह भी साफ हो गया कि अमरीकीस्ब्रिक्सिट समर्थक भारत या चीन में अपने कारखाने लगा सकते हैं। अब ये ऐसे एकाधिकारवादी और दंभी हैं जो नहीं चाहेंगे कि भारत शासन के अतर्गत काम करें। इधर अमरीका में जब बाहर वालें की बाढ़ आ गयी तो ऐसे विचार वालें के मुश्किलें पैदा हो गयीं। अब यह तो कोई समझ नहीं रहा है कि हर मुसलमान आतंकी नहीं होता लेकिन आंकियों में मुस्लिमों की संख्या के कारण निगमन तर्कशास्त्र के सिद्धंत के अनुसार वे सबको आतंकी ही समझते हैं। यह विचार निहायत निंदनीय है। मुस्लिमों के प्रति यह प्रवृति अमरकियों में चर्चिल के जमाने में भी पायी गयी थी। चर्चिल ने अपनी किताब ‘रिवर वार’ में लिखा हे कि ‘मुस्लिम चूकि धर्मोन्मादी होते हैं इसी लिये दुनिया में कोई पश्चगामी सत्ता नहीं बन पायी है।’ यूरोप और अमरीका में नस्लभाव को बढ़ावा मिलता है और मुस्लिमों को वे विपरीत या दुश्मन नस्ल का मानते हैं। यही भावना यहां उन्हीं नेताओं और उनके समर्थकों ने फैलाई है। अब बात आती है वर्तमान काल की। दरअसल भारत में जाति नस्ल का देसी संस्करण है। इसलिये साध्वी प्राची जैसे लोगों के नारे इतने घृणा कारक हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस भावना पर रोक लगाने की प्रशंसात्मक कोशिश की है और इस पर रोक लगी भी है। यह जानना जरूरी है कि इस तरह का जहरीला भाव वैवीकरण और स्मार्ट सीटी के सपने को कभी साकार नहीं होने देगा। नफरत ग्लोबलाइजेशन का दुश्मन है। यह मानना जरूरी है कि मुस्लिम या दलित इसी देश के अंग हैं और उन्हें भी उतना ही हक है जितना उन भगवावादियों को है। इसलिये जरूरी है कि नफरत के इस भाव को मिटाया जाय।
Sunday, July 31, 2016
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