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Tuesday, July 26, 2016

कश्मीर की समस्या भौगोलिक नहीं इन्सानी है

कश्मीर में रमजान के महीने में बुरहान वानी का पुलिस के हाथों मारा जाना और असके बाद वहां हुआ उपद्रव कश्मीर मुलमान की याद्दाश्त में सदा कायम रहेगा। बुरहान वानी कश्मीर में उग्रवाद की मशहूर हस्ती के ऱूप में जाना जाता था। असकी मौत के बाद भड़के गुस्से को ताकत से दबाये जाने की कोशिश, सामूहिक विरोध के हक पर पाबंदी  और घटी के नाराज लोगों के लिये सूचना पर अंकुश के कारण ना केवल गुस्सा बढ़ा बल्कि भारत राष्ट्र के प्रति उनमें दुराव भी पैदा हुआ है। जिस दिन बुरहान मारा गया उस दिन एक बड़े न्यूज चैनल ने बताया कि वह फौजी कार्रवाई में मारा गया जबकि उसकी मौत पुलिस कार्रवाई के दौरान हुई थी। फौजी कार्रवई की सूचना को अफवाह का रूप देकर निहित स्वार्थी तत्वों ने ऐसा वातावरण तैयार किया जिससे घाटी का बुद्धिजीवी समाज बेहद कुपित हो गया और इस स्थिति में भारत के अंदरूनी मामले में पाकिसन की दखलंदाजी ने आग में घी का काम किया। यह मामला पूरी तरह कानून और व्यवस्था का था लेकिन हालात ने उसे इतना खराब कर दिया कि व्यवस्था कायम करने वाले कश्मीर की हकीकत , कश्मीरी मुसलमानों की साइकी और भारत राष्ट्र के खिलाफ  आंदोलन ने कुछ इेसा समां बांधा कि कश्मीरी नौजवान आजादी के नारे लगाते देखे गये।  कश्मीर की सरकार और भारत सरकार दोनों कश्मीरियों को आश्वस्त  करने में नाकामयाब हो गये। बुरहान वानी के मारे जाने के लगभग हफ्ते भर बाद प्रधानमंत्री का बयान आया जो मूलत: सुरक्षा बलों को सलाह थी कि वे संयम से काम लें और इस बात का ध्यान रखें कि नागरिकों को असुविधा ना हो। कश्मीर की हकीकत को बगैर समझे हुये गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया कि यह पाकिस्तान करा रहा है और संघर्ष मूलत: अलगाववादियों और भारष्ट्र के बीच है। कसमीर के लोगों से मिलने के इरादे से 23 जुलाई को उनका कश्मीर दौरा एक तरह से नाकामयाब हो गया। क्योंकि कश्मीर के व्यापार – व्यवसाय के अगुआ लोगों ने गृह मंत्री से मुलाकात नहीं की और इमामों का मुंह ढंककर उनसे मिलने जाना एक तरह से उनके प्रति इन्कार का भाव था। कश्मीर में पी डी पी और भाजपा के गठबंधन की नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा कि प्रधानमंत्री होना एक बात है और विरोधी पक्ष में बैठना दूसरी बात है। बुरहान की मृत्यु के बारे में उन्होंने अपनी किसी भूमिका से इंकार किया। इस बात पर कश्मीर मसले के कई विशेषज्ञों ने कहा कहा कि ‘रोजाना की ड्यूटी के लिये सुरक्षा बलों को किसी की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती है।’ जब कश्मीर मेंअखबरों पर पाबंदिया लग गयीं और उसके विरोध में चारों तरफ से टीका टिप्पणी होने लगी तो सरकार ने कहा  कि इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है और जो भी हुआ वह ‘मिसकम्युनिकेशन’ का नतीजा है। बाद में प्रेस से उनकी वयक्तिगत क्षमा याचना और हर हाल में प्रेस की आजादी कायम रखने का पक्का आश्वासन के बाद मामला थोड़ा ठंडा हुआ। घाटी में शांति बहाल करने की  अपील करने में महबूबा मुफ्ती को तीन दिन लग गये ओर सर्वदलीय बैठक बुलाने में 10 दिन लग गये। इसमें भी नेशनल कांफ्रेंस शामिल नहीं हुई। अब मुख्यमंत्री ने पी डी पी – भाजपा गठबंधन के सभी पक्षों को जमा कर विकास और समावेश की योजना बनाने में जुटी है। अब अगर इन घटनाओं से हमने कुछ सीखा है तो वह है कि पहचान से जुड़ी मांगों को नजरअंदाज कर दिया जाय तो सुशासन की एक सीमा होती है। वहां चुनाव की प्रक्रिया को कायम रखने और लोकप्रिय सरकार के गठन के बावजूद वहां आजादी की मांग दबी नहीं। अलबत्ता सुशासन ओर विकास के माध्यम से कश्मीर की जातीय गरिमा और पहचान के संकट को थोड़ा कम किया जा सकता है पर इससे वह खत्म नहीं होगा। यहां हर आंदोलन और हर सरकार के साथ मसले बदल जाते हैं। हमारे नेता या इतिहासकार कश्मीर की समस्या को हर बार एक नया रुख दे देते हैं। जरा गौर करें कश्मीर में रायशुमारी या जनमत संग्रह की बात चली फिर वह अचानक स्वायतता में बदल गयी और अब आजादी की मांग उठने लगी है। दर असल कश्मीर की समस्या जमीन या भूगोल की नहीं है यह समस्या इंसानों की है।  मूलत: कश्मीरी जनता में पहचान की एक गहरी चाह है और इसके कारण वे जातीय गरिमा और अपने प्रति न्याय की तलाश में लगे शिद्दत से लगे रहते हैं। जब उस गरिमा को आघात पहुंचता है तो कश्मीरी जनता उसे अपने प्रति अन्याय समझती है और वह गुस्से में बदल जाता है।

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