गालिब के एक मशहूर शेर की पंक्ति है , ‘ये मसाइल- ए-तसव्वुफ , ये तेरा बयान गालिब…’ इसके बाद क्षमा याचना सहित कहा जा सकता है कि तू वली होता…। महाश्वेता देवी के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है कि धरती का रिश्ता कलम से जोड़ने वाली यह कथाकार – कलमकार संत कही जा सकती है। अचानक उनके देहावसान की खबर उन सभी लोगों को नर्वस कर गयी जो उन्हें किसी भी रूप में जानते हैं। आपने गौर किया होगा कि जब तक कोई इंसान जीवित रहता है तबतक उसकी एक खास छवि दिमाग के फ्रेम में लगी रहती है और जैसे ही उसकी मृत्यु होती है वह चेहरा उस फ्रेम को तोड़ कर बाहर निकल आता है। एक वह चेहरा अनेक चेहरों में बंट जाता है। हर चेहरे की अपनी स्मृति और हर स्मृति का अपना एक चेहरा। मृत्यु जिसे हम एक विराम मानते हैं वह अनेक चेहरों में बंट कर प्रवाहित होते लगता है। दर्शनशास्त्र का अमरत्व यही है। उनके मरने के बाद जब हम महाश्वेता देवी को याद करमते हैं तो उनकी यही छवियां हमारी स्मृति में आती हैं। जिन्होंने उनका साहित्य पढ़ा होगा उन्होंने लगातार उनके कआ चरित्रों और अनूठे पात्रो की लम्बी चित्र गैलरी अपने दिमाग में जरूर बनायी होगी। हर कथा चरित्र अपने वर्ग, परिवार, शहर और कस्बे और गांव की व्यथा कथा , विसंगति, विद्रूब्पता के पूरे संसार के साथ इस गैलरी के चित्रो में दिखता होगा। महाश्वेता देवी की सादगी , अंतरदृष्टि और सरलीकृत यथार्थवाद उन्हें अपनी रचनाओं की तुलना में विशिष्ट बना देता है और मतवादी आग्रहों से मुक्त कर देता है। जिन्होंने महाश्वेता देवी की साइकी को समझा होगा, उनके कमरे में बिखरे आदिवासी कला नमूनों को उलटा पलटा होगा उन्हे यह जरूर महसूस हुआ होगा कि वे मानवतावादी आदर्श के सम्मोहन से ग्रस्त हैं ओर जब उनकी किसी भी कहानी को पढ़ेंगे तो मनुष्य के जीवन के कठोर यथार्थ को पाकर हैरत में पड़ गये होंगे। उन्होंने अपने भीतर के इस विरोधाभास का कभी सामना नहीं किया, लेकिन इससे उनका शिल्प या हुनर छोटा नहीं हो जाता। भारतीय मध्यवर्ग के अदने इंसान की विडम्बनाओं और विवशताओं में पैठ कर जिन छोटी अच्छाइयों को वे बाहर निकालती थीं वह किसी भी मत या विचार के अमूर्त आदर्शवाद से आच्छादित नहीं होती थी। आपने जब उनका उपन्यास 1084 की मां को पढ़ा होगा तो लगता होगा कि उपन्यास की भीतर का सच उनके अंतर्विरोध को आहत करता है जहां आदर्श की अच्छाई बहुत आश्वस्त नहीं करती। उनके उपन्यासों या अन्य रचनाओं को पढ़ते हुये या उनसे बातें करते हुये ऐसा फील होता है कि एक सत्य किसी दूसरे सत्य की प्रतीक्षा में है। उस सत्य का कभी संधान नहीं हो पाया है। उनको पढ़ने के बाद लगता है सबकुछ सपाट और पुराना वही है जो बदलला नहीं, मध्य वर्गीय जीवन की तरह। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर सब कुछ पूर्व निधारित है तो उम्मीद और इंतजार किस बात का। उनकी कथाओं में यही उम्मीद और इंतजार साध्य है। महाश्वेता देवी ने अपनी कलम से उन समस्त छलावों और भुलावों को भेदा है जहां इंसान के पतन में खुद मनुष्य तिरस्कृत हुआ है। लेकिन इसके बावजूद वे इस स्तर तक व्यक्तिवादी नहीं हो पातीं, जहां खुद लेखक का व्यक्तित्व विश्लेषण की वस्तु बन जाय। किसी कलमतकार या साहित्यकार का इस तरह होना खुद में इतना क्रूर है जितनी मृत्यु। उनके कथानकों में अर्जित की हुई सच्चाई जरूर मिलती है और अस सच्चाई को तलाशने की अंतर्पीड़ा जरूर मिलती है। एलियास केनेटी ने अपनी रचना ‘कांशस ऑफ वर्डस’ में लिखा है कि ‘एक लेखक जब तलाश की अन्तर्पीड़ा का विश्लेषण करता है तो वह उसकी एक निजी थाती बन जाती है।’ महाश्वेता देवी की रचनाओं में आप इस थाती को महसूस करते होंगे। हर कथा के क्लाइमेक्स में वह दिखती है। जब उनके जीवन का क्लाइमेक्स आया तबतक हम उनकी जिंदादिली और जीवंत उपस्थिति के इतने अभ्यस्त हो गये थे कि यह क्षण उनके जीवन का अवसान हो सकता था हठात विश्वास नहीं हुआ। अपने लम्बे जीवन काल वह रुकी नहीं यह बड़ी बात है और उससे भी बड़ी बात यह है कि उनका जीना उनके लेखन को और अनका लेखन उनके जीवन को परिभाषित करता रहा। इतने सृजनशील जीवन के बाद उनका जाना एक सहज स्वीकृति जान पड़ता है।
Friday, July 29, 2016
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