एन एस जी में शामिल होने की भारत की कोशिश नाकाम हो जाने को लेकर कुछ विश्लेषक बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं और कोई परोक्ष, कोई प्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री की कूटनीति को दोषी बता रहे हैं। पर यहां यह जरूरी है जानना कि भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा और भारत के लिये आगे की राह क्या है। दरअसल कूटनीति एक तरह विचाराधीन देश की समाज व्यवस्था और तदनुरूप बनी मनोस्थिति का विश्लेषण है। यह तो उसी दिन तय हो गया जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मैक्सिको के राष्ट्रपति से बात की और उन्होंने जो आश्वासन दिया। चीन ने खुलकर विरोध किया पर कई देशों ने विरोध पर दोस्ती का मुलम्मा चढ़ा कर खुद को छिपा लिया। अब जरूरी हे यह सोचना कि आगे क्या करना है खासकर चीन के मद्देनजर। यह सही है कि भारत को इस मामले को इतना प्रचारित नहीं करना चाहिये था। भारत के इस कदम से दुनिया में इसकी प्रतिष्ठा को आघात जरूर लगा है। देश के विपक्षी राजनीतिक दल इसका लाभ उठा रहे हैं। यह सही है कि भारत ने जब 12 मई 1916 को एन एस जी शामिल होने के लिये आवेदन किया तो सरकार का फर्ज था कि उसकी राह में आने वाले रोड़ों को साफ करे ना कि ‘हाई वोल्टेज’ प्रचार में समय गवांए। लेकिन विपक्षी दलों का यह कहना कि भारत को आवेदन ही नहीं करना चाहिये सरासर गलत है। भारत के लिये यह समय बिल्कुल सही था। क्योंकि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत को इस मामले में पूरी मदद का आश्वासन दिया था। वे अब रिटायर कर रहे हैं और आने वाले राष्ट्रपति का इस मामले में भारत के प्रति क्या रुख होगा यह कोई नहीं जानता। इसके बावजूद नये राष्ट्रपति को सब चीजें समझने में समय लगेगा और किसी भी तरह यह मसला दो साल के लिये ठंडा पड़ जायेगा। भारत ने बड़ी गरिमा और समझदारी से इस दिशा में कदम बढ़ाया था। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ने विभिन्न देशों के विदेश मंत्रियों से लम्बी वार्ता की। विदेश सचिव 16 और 17 जून को बीजिग गये। वहां नेताओं से मुलाकात की और उसके बाद सोल में जाकर ठहरे रहे ताकि लॉबिंग की जा सके। विदेश मंत्रालय के और अधिकारियों ने विभिन्न देशों की राजधानियों की यात्ता की ओर वहां की सरकारों को बताया कि भारत के लिये यह क्यों जरूरी है साथ ही भारत के जुड़ जाने से क्या सकारात्मक हो सकता है। अब इसके बहाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इसे चीन के प्रधानमंत्री शी जिन पिंग के समझ शक्तिशाली ढंग से उठायें और यह बतायें कि भारत इस मसले को कितना महत्व देता है। लेकिन इस मामले में चीन का रवैया और उसका यह कहना कि इससे पाकिस्तान की दुखती रग को दबाया जा सकता है और साथ ही उसके द्वारा प्रक्रियागत मामले को तूल देना इत्यादि से साफ हो गया कि वह क्या चाहता है। उसकी मंशा या कहैं रणनीति थी कि भारत की मुश्कें कसी जाएं और उसकी औकात बता दी जाय। वह क्षेत्रीयज्विश्विक स्तर भारत को उसकी अपेक्षित भूमिका निभाते नहीं देखना पसंद नहीं कर रहा था। भारत अगर एन इस् जी का सदस्य हो जाता तो चीन को हानि होती। उसका कहना था कि अगर एक बार भारत एन एस जी का सदस्य हो जाता है तो वह पाकिस्तान को इस रास्ते में आने से रोकेगा या यों कहें कि पाकिस्तान की राह में रोड़े अटकायेगा। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में इस मामले को साफ कर दिया था। उनका कहना था कि पाकिस्तान का रवैया इतना खराब रहा है कि यदि वह एन एस जी में शामिल होता है तो एन एस जी की प्रतिष्ठा चकनाचूर हो जायेगी। वैसे चीन की सोच यह रही होगी कि वह पाकिस्तान के आवेदन को दिखावे के तौर पर सामने रखेगा और उसकी तुलना भारत से करेगा। लेकिन इससे भारत का मान घटा नहीं उल्टे एक ताकत के तौर अकेले खड़ा होने की उसकी क्षमता को दुनिया ने स्वीकार किया। भारत की दलील तर्कपूर्ण थी आजतक के उसके सुपथ पर चलने के बल पर आधारित थी। इसी कारण से बहुत से देशों ने भारत का समर्थन किया। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत की अमरीका से बढ़ती नजदीकियों से चीन में बेचैनी थी। लेकिन अगर मामले को गहराई सेख्घें तो लगेगा ऐसी बात नहीं है। चीन लगभग आधी सदी से भारत का विरोध कर रहा है। 2008 में भी भारत ने एन एस जी के लिये आवेदन किया था पर चीन ने ही उसका भारी विरोध किया था। यही नहीं राष्ट्र संघ में अब चीन को रोकने के लिये भारत को एक सफल रणनीति मसूद अजहर और जकीउर्र रहमान लखवी को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किये जाने मामले पर भी चीन ने भारत का विरोध किया था। अब चीन से निपटने के लिये भारत को नयी रणनीति तैयार करनी होगी। भारत एम टी सी आर का सदस्य बन चुका है। इसके लिये भारत ने एक साल पहले ही आवेदन किया था। चीन का आवेदन 2004 से विचाराधीन है ओर अब भारत को चाहिये कि जब यह आवेदन विचार के लिये प्रस्तुत हो तो वह इसे रोकने का जतन करे। साथ ही चीन को सार्क की सदस्यता हासिल करने में भी बाधा पैदा करे। सार्क की बैठक 9- 10 नवम्बर को पाकिस्तान में होने वाली है। चीन उसमें जरूर लॉबीबाजी करेगा , भारत चूंकि पहले से सदस्य है अतएव उसे चीन के प्रयास को रोकना होगा। चीन हमारा व्यापारिक सहभागी है और लगभग 4000 किलोमीटर लंबी सीमा जुड़ी है ओर उसपर अर्से से विवाद है। सोल में जो भी हुआ वह अस्थाई आात है। वह कोई बहुत बड़ी विपदा नहीं है। भारत का रिकार्ड बेदाग रहा है और उसे दुबारा प्रयास करना चाहिये
Friday, July 1, 2016
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