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Monday, July 11, 2016

खुशहाली के लिये शिक्षा में सुधार की जरूरत

यकीनन भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और चीन दुनिया का सबसे बड़ा एक दलीय शासित देश। कहते हैं कि लाकतंत्रड में स्वतंत्र ​विचार उत्पनन होते हैं जो शिक्षा के बाद और ताकतवर हो जाते हैं जबकि एकदलीय शासन प्रणाली में शासकीय आदर्शवाद को बढ़ावा मिलता है। लेकिन दुखद यह है कि हमारे विश्वविद्यालय अपनी शैक्षणिक गरिमा में चीन से पीछे हैं। जब माननीय स्मृति इरानी मानव संसाधन मंत्री थीं तो इस बात पर उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर की थी कि यह सब जान बूझ कर किया गया है। इसलिये भारत इसे नहीं मानता। हमलोग इस आकलन की अपनी विधा बनायेंगे ताकि दुनिया को दिखा सकें कि हम पूरी तरह भारतीय हैं। बेशक यह देशभक्ति है पर इसके साथ ही यह सब एक जिद्द भी है और हकीकत से मुंह छुपाने का प्रयास भी है। सच तो यह है कि लोकतांत्रिक भारत के सभी विश्वविद्यालय ओर शोध केंद्र गुणवत्ता के मामले में चीन से पीछे हैं। लेकिन यह स्थिति हरदम नहीं रही। 1950 से 1960 के मध्य जब जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे तो भारत के कई संस्थान विश्व स्तरीय थे। आज कल आप या आज के शासक समुदाय नेहरू की कितनी भी आलोचना कर ले पर सच तो यह है कि उनके काल में शिक्षा का हाल खासकर तकनीकी और स्वास्थ्य शिक्षा विश्व स्तरीय थी। देश के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों ने इन्हें अपनी सेवाएं दी थीं और इनमें शोध किये थे। इसके बाद हालात बदलने लगे और शिक्षा पर अफसरशाही तथा राजनीतिज्ञों का कब्जा हो गया। आई आई टी के तरह के संस्थान भी अपने कोर्स तथा अपनी फीस तय करने को स्वतंत्र नहीं रह गये। सबके लिये ‘ऊपर’ से निर्देश आने लगे। नतीजा यह हुआ कि विश्वविद्यालय ऐसे विशालकाय जन्तु में बदल गये जो शिक्षा की गुणवत्ता नहीं अपनी सत्ता को ताकतवर बनाने में लग गये। इसके अलावा सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का अपना आइडोलोजिकल इगो भी इन्हें आघात पहुंचाने लगा। जब जब जो सरकारें आयीं उन्होंनके अपने आडियोलॉजी के अनुसार संचालन आरंभ कर दिया। बंगाल में सी पी एम के जमाने में क्या हुआ था, शिक्षा की कैसी दुर्दशा हुई यह किसी से नहीं छिपा है। यही नहीं शिक्षा के कांग्रेसी करण और भगवाकरण के भी उदाहरण कम नहीं हैं। अर्जुन सिंह तथा नुरुल हसन ने शिक्षा के साथ क्या किया था यह किसी से छिपा नहीं है। इसके अलावा शिक्षा में क्षेत्र्वाद तथा भ्रष्टाचार ने रही​ सही कमी पूरी कर दी। कई ऐसे राज्य हैं कुलपति के पदों के लिये ‘कीमतें’ चुकानी पड़तीं हैं। विभागध्यक्षों द्वारा अपने मुसाहिबों, परिजनों और मित्रों की नियुक्तियां शिक्षा एवं शोध का सत्यानाश कर रहीं हैं। इन सबके बावजूद , अभी भी दृश्य अंधकारपूर्ण नहीं है। अभी आई आई टी, आई आई एम और विभिन्न केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं जहां उच्चवर्गीय शिक्षण वातावरण है। कुछ राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय भी अपनी गरिमा बनाये हुये हैं। अन्य जगहों में भी सुधार के लायक हालात अभी हैं। ट्रेजेडी यह है कि जो भी सरकार में शिक्षा का प्रभारी होता है वह समस्या की जड़ को देखने के बजाय समस्या की फुनगियों को देखना शुरू करता है तथा समस्या को कायम यखने की कोशिश में लग जाता है। उदाहरण के लिये जैसा ऊपर बताया गया कि पूर्व मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने भारतीय विश्वविद्यालयों को चीन से कमतर मानने की बजाय गुणवत्ता आकलन के तरीकों पर ही उंगली उठाना शुरू कर दिया। शिक्षण और शोध वहीं बेहतर हो सकता है जहां विचारों की बहुलता और स्वतंत्रता हो। नये मानव संसाधन मंत्री के सामने यह कार्य स्पष्ट है। उन्हें नहीं सोचना होगा कि करना क्या है उन्हें बस कार्य आरंभ कर देना होगा और सबसे जरूरी है आज तक के कूड़े की सफाई। इसके लिये सबसे पहले  उन्हें विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता बढ़ानी होगी और साथ ही उन्हें ऐसे वातावरण तैयार करने होंगे जिससे अच्छे निजी विश्वविद्यालय पनप सकें। यही नहीं , जो प्रतिभायें देश से बाहर चली गयीं हैं वे लौट सकें और यहां के शिक्षण में योगदान कर सकें। यही नहीं संघ या विद्यार्थी परिषद जैसे  संगठनों के निर्देशों को नहीं मानना चाहिये। यह निश्चय ही कठिन कार्य है पर अगर यह हो सका तो भारतीय शिक्षा की साख बढ़ेगी और देश में प्रतिभाओं का निवास होगा जिससे देश वैचारिक रूप में अमीर होगा।  इससे हुनर की अमीरी बढ़ेगी और देश में खुद ब खुद खुशहाली आ जायेगी।

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