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Friday, July 22, 2016

सोशल मीडिया के जहर का मुकाबला करना होगा

कुछ दिनों से अचानक आतंकी हमलों का जोर बढ़ गया और बड़ी संख्या में निर्दोष लोग मारे गये। इन हमलों में एक बात समान थी वह कि सभी कट्टरपंथी थे और किसी ना किसी प्रकार आई एस के साथ थे। हाल में आई एस के कई समर्थक और उसके लिये लड़ाके भर्ती करने वाले कई लोग अपने देश में गिरफ्तार किये गये और कई जिहाद में हिस्सा लेने जा चुके हैं। यह जान कर पीड़ा होती है कि ढाका के हमलावर पढ़े लिखे थे और अच्छे स्कूल के पढ़े लिखे थे। यही नहीं कश्मीर का बुरहान वानी भी पढ़ा लिखा था और सोशल मीडिया के इस्तेमाल में माहिर था। यहां जो सबसे बड़ी बात मन को छू रही है वह है कि क्यों पढ़े लिखे और अच्छी पारिवारिक पृष्ठभूमि के   नौजवान कट्टर पंथ की ओर क्यो बढ़ रहे हैं। यह एक समस्या है और जब तक इस समस्या के कारण को हम नहीं समझेंगे तब तक समाधान हमारे लिये मरीचिका साबित होगा। कट्टरपंथ हवा में थोड़े पैदा लेता है। यह जाकिर कायक जैसे उपदेशकों और नफरत फैलानेवाले मनगढ़त तथ्यों का मन पर लगातार आघात का असर है। नफरत फैलाने वाले मनगढ़त तथ्य क्या होते हैं? जब तक इसकी बनावट को हम नहीं समझेंगे और उसका निष्पक्ष विश्लेषण नहीं करेंगे तबतक इसका हल नहीं निकाला जा सकता है।  दुनिया में जितने लोग हैं चाहे वह कोई आदमी हो या समूह  सबका अपना एक ‘बिलीफ सिस्टम’(विश्वास तंत्र) होता है, जिसकी नींव पर दुनिया के बारे में वह अपने विचार बनाता है। अब अगर बहुत बड़ी आबादी इस विचार के साथ रहती है तो वह एक आख्यान या तथ्य बन जाता है। इस बात पर दुनिया के बहुत से मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री इत्यादि शोध करने में लगे हैं और अतीत में कर भी चुके हैं कि कैसे एक आदमी या एक जन समूह में एक विचार अपने आप  आस्था में बदल जाता है और युग युगों तक कायम रहता है तथा उसके विपरीत बात को उस आस्था जुड़े लोग  सुनने को तैयार नहीं होते। सबका दुनिया के बारे में एक विचार है दुनिया के कार्यकलापों के सम्बंधों के प्रति आस्था है और जरूरी नहीं कि वह तर्क संगत ही हो। विख्यात समाज शास्त्री इडलसन के मुताबिक ‘प्रत्येक आदमी या जनसमूह में पांच ऐसी आस्थाएं या विचार होते हैं जो अगर एक साथ जमा हो जाएं या एक साथ सक्रिय हो जाएं तो एक खतरनाक स्थिति का सृजन होता है। वे पांच विचार या विश्वास हैं –श्रेष्ठता या श्रेष्ठभाव। यह खुद से तैयार होता हैआहैर सच्चाई पर इसका वर्चस्व होता है। दूसरा है, अन्याय। इसके तहत कुछ तो जायज शिकायतें होतीं हैं और अधिकांश मन की उपज होती है। तीसरा भयभीति यानी जोखिम भाव। इसके कारण उस व्यक्ति या समूह को प्रतीत होता डहै कि वह या वे एक जोखिमभर खतरनाक वातावरण में रह रहे हैं। चौथा है अविश्वास और अंतिम है असहाय भाव। ’ शिक्षा के कारण ये पांचों भाव ज्यादा आक्रांत करते हैं , इसीलिये ओसामा से लेकर बुरहान तक सभी पढ़ेलिखे थे। समाज विज्ञानी ग्रैमी ब्लेयर के मुताबिक ‘मध्य वर्गीय समुदाय में आतंकवाद को ज्यादा प्रश्रय दिया जाता है। गरीबों में इसकी उतनी तरफदारी नहीं है। ’ इसीलिये इन दिनों अच्छे परिवार के नौजवानों को अातंकवाद की राह पकड़ते देखा जा सकतग है। यही नहीं पढ़े लिखे नौजवानों के साथ यह भही सुविधा है कि वे टेक्नीकली एडवांस होते हैं और आतंकी संगठन उन्हें अपने ‘पोस्टर बॉय’ के रूप पेश करते हैं ताकि दूसरे नौजवान इससे प्रभावित हों। यह ढांचा इस्लामी दुनिया में पीड़ित मुसलमानों के रूप में प्रचारित करने में काम आता है। इस आग में घी का काम करता है सोशल मीडिया। वह भ्रामक तथ्यों को को प्रसारित करता है जिससे उसकी क्षमता विस्तारित होती जाती है। यह तो सभी जानते हैं कि हर समाज में कुछ उग्र असंतुष्ट नौजवान होते हैं जो पहले अपने आस पास ही जहर उगल कर वातावरण को जहरीला बनाते थे पर अब सोशल मीडिया के कारण उनकी ताकत बढ़ गयी है और वे अपने जहर से बड़ी आबादी को विषाक्त बनाते हैं। इसमें गुमनामी का परदा और घातक हो जाता है। आतंकवादी सोशल मीडिया का इस तरह से लाभ उठाते हैं। अभी समय की​ मांग है कि इसका यानी सोशल मीडिया के दुष्प्रचार या जहर उगलने वाली क्रिया का मुकाबला किया जाय। आख्यान ना एक दिन में गढ़े जाते हैं और ना एक दिन में उन्हें मिटाया जा सकता है। लेकिन, इसका मुकाबला जरूरी है। इसके बगैर शिक्षा या सम्पन्नता कोई फर्क नहीं ला सकती है। आतंकवाद को एक सुरक्षा का मसला मान लेना गलत होगा।

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