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Monday, July 25, 2016

नयी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत

भारत में आर्थिक उदारवाद के 25 साल कल पूरे हो गये। इस मौके पर अखबारों में बहुत कुछ लिखा गया और उसमें ढेर सारी सियासी छोलदारियां भी दिखीं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है कि क्या उससे आम भारतीय में सम्पननता आयी है। उदारवाद दर असल एक विचार है। ​विक्टर ह्यूगो कहा करते थे कि ‘जिस विचार का समय आ गया है उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती है। ’ उदारवाद का विचार आया 25 वर्ष पहले। सरकार ने उसे जाहिर किया। सरकार ने बताया कि ‘भारत इस दुनिया में उभरती हुई आर्थिक ताकत है।’ एक चौथाई सदी के बाद भारत सचमुच एक आर्थिक ताकत के तौर पर उभरा है और आज इसका स्थान दुनिया की दस सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्थाओं में एक है। पर सवाल है कि इससे लाभ क्या मिला है। करोड़ों गरीबों की दशा में सुधार आया है क्या? जो कहा गया था और सोचा गया था वह हासिल हुआ है क्या? हर साल सरकार के आर्थिक विन्यास के आईने के रूप में जनता के सामने बजट रखा जाता है  और हर बजट में कुछ रियायतें होती हैं और  कुछ पाबंदियां। इन्हीं रियायतों - पाबंदियों की भूल -भुलैय्या में निजी कम्पनियों का विकास हुआ और धीरे- धीरे वे ताकतवर हो गयीं। आर्थिक उदारता की घोषणा के वक्त तीन वायदे किये गये। पहला, इससे आर्थिक विकास को बल मिलेगा , दूसरा कि इससे धन और रोजगार बढ़ेंगे और तीसरा, लाइसेंस राज की समाप्ति के बाद अफसरशाही का निजाम खत्म हो जायेगा और इसके कारण होने वाली देरीएवं भ्रष्टाचार मिट जायेगा। ये सब हुआ , कुछ देर के लिये मान लें। दौलत भी बढ़ी पर उसका विभाजन बहुत असमानतापूर्ण रहा। जो धनवान है वह और अमीर हुआ और जो गरीब है असकी झोली खाली होती गयी। ऐतिहासिक तौर पर अमीरी और गरीबी के बीच लम्बी दूरी वाले देश में उदारवाद के बाद और दूरियां बढ़ गयीं। बेशक चरम विपननता कम हुई है। कुपोषण ओर भूख के आंकड़े कम हुये हैं।  यहां सोचने वाली बात है कि इन उपलब्धियों को हासिल करने में कितना समय लगा है। हमसे यानी बारत से कम प्रतिव्यक्ति आय वाले मुल्क बंगलादेश में हमसे पहले और ज्यादा कामयाबी भरे ढंग में भूख और कुपोषण के आंकड़ों को घटाया है। दूसरी तरफ भारत में 1991 के आस पास केवल दो खरबपति थे। जिनकी सकल पूंजी  2.112 खरब रुपये थी 2012 मे  यह संख्या बढ़ कर 46 हो गयी है और जी डी पी में इनका संयुक्त योगदान लगभग 10 प्रतिशत हो गया है। देश में वार्षिक वेतन वृद्धि की दर लगभग 11 प्रतिशत है जबकि आश्चर्यजनक ढंग से औसत पारिवारिक व्यय महज 1.5 प्रतिशत है। यही नहीं , कृषि विकास की दर 80 के दशक में 5 प्रतिशत थी और 90 के दशक में 2 प्रतिशत हुई और वर्तमान में शून्य है। यही हाल गरीबी की रेखा की भी है। गरीबी की रेखा को और नीचे लाने के सरकारी फैसले के बाद भी देश में गरीबो की कमी नहीं। गरीब से गरीब देश में एक अमीर परिवार का कोई बच्चा पैदा लेता है तो अच्ची से अच्छी तालीम पाता है और अगर बिमार होता है तो उसका अच्छा से अच्छा उपचार होता है। अगर यही हालत किसी गरीब के बच्चे के साथ होता है तो मामूली से मामूली बीमारी में भी उसके प्राण संकट में पड़ जाते हैं, क्योंकि इलाज पर खर्च करने के लिये उसके पास पैसे नहीं हैं। यह गैर बराबरी तेजी से बढ़ रही है क्योंकि अधिकांश धनवान लोगों के बीच जो बच्चे पैदा होते हैं वे अपने संदासधनों के बूते और  आर्थिक विकास के भागीदार होते हैं।जिससे अमीरों की संख्या बढ़ती जाती है।  जबकि गरीबों  के बच्चे अपनी तमाम काबिलियत के बावजूद कुछ नहीं कर पाते केवल धनतंत्र का शिकार हो कर रह जाते हैं। भारत में समाज विभिन्न जातियों और वर्गों में तकसीम है और अगर इनमें गरीबी है तो जन्म का दंश भी ज्यादा दुखदायी होता है।  आज 25 साल के बाद भी बहुत कुछ हासिल नहीं हो पाया। कुछ नयी रूढ़ियां पैदा ले लीं , कुछ नये गिरोह बन गये एक नूतन समाज गोलबंद हो गया। 25 वर्ष पहले तक आर्थिक इतिहास का जो समाजशास्त्र था उसकी धारा बदल गयी है। एक नया धनिक या श्रेष्ठि वर्ग उपज गया है जिसकी अपनी सोच है अपनी दृष्टि है। 19 शताब्दी में इसी नये श्रेष्ठि वर्ग से मुकाबले के लिये कम्युनिस्ट दर्शन बना था और उसकी स्वीकार्यता बढ़ी थी। आज हालात फिर कुछ वैसे ही हो रहे है और अब इस धारा को बदलने के लिये न केवल नयी परिकल्पना की जरूरत है बल्कि नयी राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता है वरना नये विप्लव की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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