कल यानी गुरूवार का अखबार देखें तो लगेगा कि हम किस मुल्क में हैं जहां चारो तरफ मार पीट, हिंसा , दलितों को गाली, संसद में अभद्र व्यवहार और उस व्यवहार पर अचानक शोरशराब। क्या यह वही मुल्क है जिसे हमारे पूर्वजों ने सौंपा था या क्या हम यही मुल्क या ऐसा ही मुल्क हम अपनी भविष्यत पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं? चारो तरफ से फटे हुये चीथड़े की मानिंद।
कल नुमाइश में मिला चीथड़े पहने हुये
नाम पूछा तो कहा हिंदुस्तान है
इसी हिंदुस्तान की खुशहाली के ख्वाब हम देख रहे हैं ? जहां हर चीज को, हर बात को चुनाव और वोट की निगाह से देखा जा रहा है। संविधान हम र्जैसे लोगों के फटे हुये थैले में पड़ा है। कश्मीर जल रहा है, गुजरात झुलस रहा है, संसद में गालियां लहरा रहीं हैं, सोशल मीडया में तरह तरह के झूठ चल रहे हैं। एक पक्ष कहता है कि कश्मीर में पथराव करती भीड़ को गोलियों से भून दो और दूसरी तरफ इसे गलत बताने वालों को गद्दार कहा जा रहा है। 125 करोड़ की आबादी में कुछ ही लोग यह सब करा रहे हैं। सुप्रसिद्ध कवि धूमिल अपनी बहुचर्चित कविता ‘सड़क से संसद तक’ में कहते हैं-
वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं
वे वकील हैं, वैज्ञानिक हैं
अध्यापक हैं, नेता है, दार्शनिक हैं।
लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं।
यानी-कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का संयुक्त परिवार है।
हर बार बात शुरू होती है संसद से और सड़कों पर आकर इतनी मुखर हो जाती है कि हमें डर लगने लगता है कि कल क्या होगा। आप सोचें कि हम जिन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं और वे अपनी जगह पर पहुंच कर भूल जाते हैं कि आये क्यों हैं?उनका कर्त्तव्य क्या है? जनप्रतिनिधि से सद् आचरण की आपेक्षा की जाती है। जब कोई सार्वजनिक जीवन में आता है तो उसे समझ लेना चाहिए कि उसकी हर हरकत पर दूसरों की नजर होगी। उसका आचरण दूसरों के लिए भी उदाहरण बनता है। जन-जीवन शासक के शब्द, व्यवहार और संकेतों से प्रेरणा लेता है। गीता में कृष्ण ने कहा है कि
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुतेलोकस्तदनुचर्तते।।
एक शासक ही जब स्थापित मूल्यों का उल्लंघन करेगा तो उसकी अनुगामी जनता क्या करेगी? आज की अराजक स्थिति का कारण है जनप्रतिनिधियों द्वारा स्थापित मूल्यों की अवहेलना। लोकतंत्र में मत भिन्नता की सदा गुंजाइश रहती है लेकिन अराजकता हर जगह खतरनाक है।
हां यह सही है कि कुर्सियां वही हैं
सिर्फ टोपियां बदल गयी हैं और-
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछलकर
अपनी जगहें बदल रहे हैं
यहां मूल प्रश्न यह नहीं है कि हुआ क्या?प्रश्न है कि ऐसा होने का कारण क्या है? कारण है राजनीतिक निष्ठा का अभाव। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी चुनाव में दलित कार्ड चल रही है। मंित्रमंडल में ज्यादा से ज्यादा यूपी का प्रतिनिधित्व रखा गया। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने वाराणसी में दलितों के साथ भोजन किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में योजनाबद्ध ढंग से अम्बेदकर का जिक्र करते सुने जाते हैं। यह सरकार आयी तो कहा गया कि भारी परिवर्तन आयेगा
हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई खास फर्क नहीं है
जिन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर
चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है
यह अवस्था राष्ट्र के दलितों के प्रति सरकार की निष्ठा का भाव नहीं बल्कि एक समरनीति है और ऐसे में मतलब सध जाने के बाद जो हालात पैदा लेते हैं वे बड़े खतरनाक होते हैं। जैसा पहले था वैसा आज भी है। गुजरात में दलित और पिछड़े सड़क पर आ गये हैं, प्रदर्शन होने लगा है। क्यों हो रहा है ऐसा क्योंकि किसी के भीतर निष्ठा नहीं है। जो है ऊपर ही ऊपर है इसी लिये इस विशाल मशीन का पुर्जा कभी सुधर नहीं पा रहा है।
मैं रोज देखता हूं कि
व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा गरम होकर
अलग छिटक गया है
और,ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है,न दया है
जीन लीडलाफ ने लिखा है, 'यह आसानी से देखा जा सकता है कि हममें से जो लोग कम विश्वसनीय हैं, वे ही दूसरों पर अधिक शंका करते हैं, जो समाज अपने सदस्यों को भरोसेमंद होने का आदेश देता है, उसमें उपरोक्त आचरण को मनोरोगी और असामाजिक माना जाएगा। परंतु किसी ऐसे समाज में इसी आचरण को पूरी तरह सामाजिक भी माना जा सकता है, जिसमें जब भी मौका लगे तब दूसरे को छलने का रिवाज हो, बशर्ते उस समाज के अन्य लोग भी ठीक यही करने वाले हों।' तो यह तो हमें ही तय करना है कि हमारे समाज का क्या स्वरूप हो।
हां यह सही है कि
इन दिनों -चीजों के
भाव कुछ चढ़ गये हैं।
अखबारों के
शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
विपक्ष ने संसद में सरकार को घेरा और कानून के मुताबिक गलती करने वाले को सजा देने को कहा। लेकिन इससे क्या होगा। जबतक जनता मतपत्रों के माध्यम से सरकार से यह सवाल नहीं पूछेगी कि ऐसा करने से क्या सुधार होगा तब कुछ नहीं हो सकता है?
वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
और हम बेकरार हैं आवाज में असर के लिये
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